वैदिक , विज्ञान और भारतीय संस्कृति | Vedic Vigyan Aur Bhartiya

Vedic Vigyan Aur Bhartiya by पं गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी - Pt. Giridhar Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(हर) अग्नि के होत्र कर्म का स्वरूप यहाँ होता शब्द ध्यान देने योग्य ह । होता का अप है देव या शक्ति का आावाहन करनेवाला । उस आवाहन के द्वारा बाहर के भूत-तत्व को लेकर आर्नि में उसका हवन करनेवाला और हवन करके उसे आत्महूप में परिवतित करनेवाप्ता जो शक्ति का रूप है, चह्टी 'होता' है । प्रत्येक गभित कोष (फटिलाइज्ड सेल) मे जो स्पत्दन होता है, वह इसी होन्न कर्म को पूनि के लिए है। वह बाहर से भूतो या प्रचतत््दो को केन्द्र मे खीचकर उसका संवर्धन करता है । इसमें दो प्रक्रिया दिखाई पड़ती है, एक अन्न-अनाद को प्रक्रिया है और दूसरी सवर्घन की प्रक्रिया । अन्न-अन्ताद का तातयें यह है कि केन्द्र में बैढा हुआ अग्ति जो अत्ताद है, वाहर से अपने लिए अन्न या सोम चाहता है। इसे अनाद अग्तिकी सूख या अशवाया कहते हैं । यदि अख्नि को सोम न मिले, तो यज्ञ की समः्प्ति हो नाप भर कोप के सब्र का कार्य रुक जाय । वैज्ञातिक सिद्धान्त के अनुसार जीवन के तीन विदोप लक्षण हें। जहाँ भी जीवन रहता है, वहाँ इन तीनों को सत्ता पाई जाती है । उनमें पहला अन्न-अनाद का नियम है, निते बैज्ञातिक “एपिमिलेशन' और 'एलिमिनेशन' की प्रक्या कहते हैं. (अणिता रपिमइनवत्पोपमेव दिवे दिवे) । पोषण प्राप्त करने के बाद दूसरी प्रक्रिया संवर्धन की है, जिते वैज्ञानिक भाषा में सेस-फिशन, सेल-डिवीजन या ग्रोथ कहते हैं। इन दोनों के बाद जीवन का तीसरा लक्षण प्रजनन है । जिस बीज से प्राण की उत्पनि होती है, प्रननन के द्वारा पुनः उसी धोज को सृष्टि प्रकृति का सक्ष्य हे। दीज से वीज तक पहुंचना यही प्रकृति का चक्र है, जिसे ब्रह्म-चक्त एवं सवर्सर-चक्र भी कहते हैं । प्रत्येक बीय काल को जितनी अवधि में पुन बीज तक पहुँच पाता है, वही उसका सवेत्सर-काल है । किन्तु, यह सवत्सर की चक्नात्सक गति है । जो बार-बार ध्रूमती हुई काल की अवधि में नये-नये बीजों का निर्माण करती है । प्रजापति को सृष्टि में समस्त प्राण-त्तत्व या जीवन सबत्सर-च%् से नियन्तरित है। इसीलिए, ब्राह्मण-प्रन्यो में कहा है कि सवत्सर ही प्रजापति हे-- “संवत्सर एवं प्रजापति ' (शतप्रथ, है 0३३५) ८ सयोत्‌ सृष्टि की जो श्रजसनात्मक प्रकिया है, वह सवत्सरात्मक काल की शक्ति से नये-नयें रूपों में प्रकट होती हुई सामने आआ रही है। इस सबत्सर के दो रूप हैं-एक चन्नामक, दूमरा यज्ञात्क । प्य्वी जितनी अदघि में एक बिन्दु से चलकर पुत्त उछो बिन्दु पर लोट आती है, वह चकार्मक सवत्सर है, बर्यात्‌ उतनी देर मे काल का एक पहिया धूम जाता है, छिन्तु उसका कोई चिह्न अवशिष्ट नहीं रहता । उस सबत्सर की अवधि में देव या अग्नि या झक्ति जो भी भूत पदार्थ बाहर से सोचकर अपने स्वरूप में ढाल लेती है, वहीं यन्नात्मक सवत्सर है। अग्नि में सोम की आहुति इसका स्वरूप है। चक्रात्मक सबत्सर केवल प्रनोकमात्र है, वह भातिसिद्ध है. यह क्वल छन्द या आवपन या पात्र है । उस पात्र मे अग्नि द्वारा सोम की जो मात्रा भर जाती है, वह यह्ाएमक संबत्सर सत्तांसिद्ध है । उसी को हम भुतभोतिक या स्थूल दृश्य रूप में प्रत्यक्ष आप्त करते हैं। इस प्रकार, दिश्व की रचना के तिए प्रजापति ने अपने-आपको सवत्सर और यज्ञ इन दो




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