मीराबाई का काव्य | Meera Bai Ka Kavya

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Meera Bai Ka Kavya by मुरलीधर श्रीवास्तव - Muralidhar Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| २. _ उसने साघु-संगत और भगवत-भजन में जीवन व्यतीत करने का निश्चय कर लिया । वह सदा साधु-सेवा में निरत रहने लगी चोर भक्ति ही उसके जीवन का प्रधान अंग हो गया । वह स्वतन्त्र हो कर सहल से निकल कर मन्दिरों में जाने लगी । साधुओं की सेवा कृष्ण की पूजा में लीन हो गई । यह अवस्था यहाँ तक पहुंची कि वह खुले तौर से हाथ में करताल लेकर मंदिरों में नाचने लगी चर कभी कभी वह श्री चैतन्य देव के समान उद्श्रान्त हो जाती । ऐसी अवस्था राणा रत्नर्सिह सर राणा विक्रमाजीतसिंह को सबंधा असद्य थी। राजकुल की वधू का ऐसा स्वतन्त्र चरित्र भला उन्हें केसे पसन्द आता ? महाराणा इस भक्त रमणी की भक्ति व महत्व को नहीं समझ सके उन्होंने मीरा को बहुत समभाया किन्तु उसने तो अपना जीवन-पथ निश्चित कर लिया था। अन्त में सीरा की इस अवस्था से रुष्ट हो कर राणा ने उसके प्राण हरने का प्रयत्न किया किसी__दयाराम पड़ा के हाथ कृष्ण के चरणामत के बहाने विष भरा प्याला भेजा पर मीरा ने भगवान का प्रसाद समझ कर विष का प्याला उठा कर पी लिया । कहा जाता है कि मीरा पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा | मीरा के भक्ति-पथ पर राणा द्वारा काँटा बोये गये पर उसने उनकी परवाह न कर उसी पथ का अनुसरण किया आर अंत में भक्तों की श्रेणी में उच्च आसन की अधिकारिणी हुई। सीराबाई का जीवन संग्रामसय है तौर छन्त में वह संग्राम में विजयिनी हुई । कहा जाता है कि विष भेज कर विफल प्रयास होने पर राणा ने फिर साँप का पेटारा मीरा के पास मेजा . पर बह साँप का पेटारा शालिगय्राम की मूर्ति में परिणत हो गया यह सब कथायें उसकी श्रगाढ़ भक्ति की द्योतक हैं और भक्तों के हृदय में भगवान के अति असीम विश्वास उत्पन्न




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