मूक सत्संग और नित्य - योग | Mook Satsang Or Nitya Yog

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Book Image : मूक सत्संग और नित्य - योग  - Mook Satsang Or Nitya Yog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ मूक-सत्संग श्र नित्य-याग (इ) विधाम से विमुखता का एक कारण यह भी है कि हम ने श्रपने जीवन का सही मूल्याड्ुन नहीं किया है । श्रपने लक्ष्य के सम्बन्ध में निस्संदेह नहीं हैं । ः संयोग की दासता श्रौर वियोग के भय ने कभी हमें चैन से रहने नहीं दिया, फिर भी “हमें नित्य-योग चाहिये”--इस बात का स्पप्टीकरण हमने श्रपने द्वारा नहीं किया । यही कारण है कि विश्वाम का महत्व समभ में नहीं प्राया । उस पर दृष्टि नहीं गई । व्यक्ति भ्रनुकूलता बनाये रखना चाहता है परन्तु इसमें उसका श्रपना कोई वा नहीं चलता, इसलिये प्रतिकूलता के भय से भयभीत रहता है श्रौर वियोग होने पर विह्लल हो जाता है। उस समय श्रपना जीवन अपने लिये बिलकुल ही श्रनुपयोगी सिद्ध होता है । इस दशा में वहाँ अपनी माँग का स्पष्ट पता चलता है कि मुझे वह संयोग नहीं चाहिये जिसमें वियोग का भय हो । तब नित्य-योग की शझ्रावस्यकता प्रबल हो उठती है जो विश्वाम से साध्य है । श्रतः अपने लक्ष्य का स्पष्टीकरण हो जाने पर बविश्वाम का महत्व समक में ग्राता है । (उ) विश्वाम से विसुख रहने का एक मुख्य कारण यह भी है कि हमने श्रपने जीवन के महत्व को भुला दिया है । प्रस्तुत पुस्तक के प्रणेता ने प्रत्येक खंड में हम लोगों को यह याद दिलाया है कि _मानव-जोवन बड़ा ही सहत्वपूर्ण है । भोग में जीवन-वृद्धि स्वीकार करने के कारण ही मानव की नित्य-योग से विमुखता हुई है! निज-विवेक के श्रनादर से ही मानव ने भोग में जीवन-वुद्धि स्वीकार की है । प्राप्त विवेक के प्रकाश का श्रादर करें तो भोग को त्याग कर; रोग झ्ौर शोक से रहित हो, चिर-विश्वाम पा. सकते हैं । इतनी महिमा है इस जीवन की । हमारी एक माँग है। हम पर एक




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