चाँद | Chand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१. प था प्टकर्ड र जुलाई, १९३० प रु३५ पक सनसनी सन वटशईशेशटिरेटिन ऑन न्लटैनररन ७ हु ६ करके शटूश ट्रेलर सट्रैशएलेवट दि दर के कि ध 3 कि वि वि व अकाराः बकवीकणण [ मुक्त], कक लित ने सोचा कि क्यों उसका प्रत्येक काम दुनियाँ को चुरा मालूम पढ़ता है ? क्यों दुनियाँ उससे घृणा करती, उसकी उपेक्षा करती छौर उसे थ्रपने से दूर ही रखना चाइती है ? उसमें क्या घुराई है, कया श्वभाव _ हैं, क्या खोट है ? उसने यह क चात चहुत सोची, बढ़ी देर तक हसी उपेड़-बुन में पढ़ा रहा, सगर कुछ ठीक ने कर सका । यह घात थाज दी उसके मन में उठी हो, ऐसा नहीं था 1 ्ननेक चार, इसी बात को सोचते-सोचते झन्धकार से भरी हुई कितनी रातें उसने बिता दी हैं ; इसी रदस्प का उद्वाटन करने की इच्छा से, गरमी की कितनी ही .लग्वी दुपडरिया उसने काट दी हैं । वरसत्ती हुई वर्षो की रिस-सिस वूँदों में नहा कर, जाद़े की काँपती हुई सर्दी में दिंदुर कर, घाधघीरात्र की नीरव-निर्जनता में उस पार के सघन शरैघेरे में दष्टि गढ़ा कर, 'घ्नेक वार वह इसी बात को सोचता रहा है ; किन्वु श्राज तक यह बात सदा ही उसके निकद एक पहेली रददी है ; श्बौर ऐसी पहेकी, जिसे हल करना, कम से कम उसके लिए तो, कभी श्रासान दो ही नहीं सकता । सोचते-सोचते उसका माथा घूम गया । ऊच कर उसने एक लम्वी,साँस ली श्रौर सिर ऊपर उठाया । उसे मालूम पड़ा, मानो जीवन भर सोचते रहने के वाद भी, इस सवाल का कोई उचित उत्तर उसका हृदय न दे सकेगा । उसे मालूम पढ़ा, मानो कभी इस रहस्य का, इस पहेली का कूल-क्निरा वह न पा सकेगा । उसने निश्चय किया दि घाव कभी इस बात पर अकाश डालने की चेपा चृद्द न करेगा, कभी चह वात न सोचेगा । सोचेया 'गर, तो उसका माथां फद जायगा, वह पागल ग हो लायगा। हय 2 बलपूर्वक इस बात को ्रपनी स्टति-सीसमा के चादर कर देने की 'चेश उसने की, फिर दरवाज़ा खोल कर घीरे- धीरे वाइर--सड़क पर--निकल्न झाया । उसे मालूम न था कि उसे कहाँ जाना है, पर उसके पैर वढ़ते गए, वह 'चलता गया । सददसा उसने देखा कि चहमाल्ती के दर- चाजे पर था खड़ा हुच्आा है । _ क्षण भर चद्द असमजस में पढ़ा रहा । एक बार उसकी इच्छा हुई कि चद्द नव यहाँ तक श्रा ही गया, तो एक घार माज्जती से मिलता जाय । एक वार, हाँ, केवल एक चार, श्रन्तिम बार मिल कर वह मालती से कद ले कि दुनियाँ के साथ रद्द कर जब्र चलना है, तो उसके कहने की श्रोर ध्यान देना ही पढ़ेगा, उसकी वात साननी ही पढ़ेगी। वह मालती से कह ले कि श्रपनी इच्छा श्र कांताश्रों का चलिदान करके भी यदि वह समाज घर परिवार को प्रत्ज्न रख सकता है, तो चह्द चही करने की चेपटा करेगा । वह मालती से वोलना छोड़ देगा, सिलना- जुजना भी बन्द कर देगा । हाँ, यद्दी तो दुनियाँ चाहती ट्दे! , क्षण भर के लिए ये विचार उसके सन में उठे ज्ञरूर, मगर शीघ्र हो, खा से, उपेक्षा से, तिरस्कार से वद् श्रट्दास कर उठा । उसने सोचा--दुनियाँ की परवा करने की उसे ज़रूरत ही क्या है ? दुनियाँ तो उसके सुख-दुख की, उसके मान-झपमान की, उसकी श्रसन्नता- प्रसन्नता की परवा नहीं करती ;' फिर वद्दी उसके लिए क्यों जान दे ? क्यों श्रपनी इच्छाओं झौर श्राकॉक्षाओओं का ग़ून करे ? और दुनियाँ में सबको प्रसन्न रख कर चलना भी तो बहुत झासान नहीं है, शायद शरसम्भव ही है। दुनियाँ प्रसन्न दोगी तब, जब इस उसी के निदिष्ट पथ पर चलेंगे, उसी की इच्छा के घ्रनुकूल श्राचरण करेंगे, क्षेकिन यह भी क्या सम्भव है ? एक मनुष्य कितने लोगों को इस प्रकार प्रसन्न रख सकेगा, कितने ' लोगों के इद्डित पर थधपना पथ धतिक्रम कर सकेगा ? यह तो मुश्कि्त है, शायद यह किया ही नदीं जा सकता, शायद इसकी ज़रूरत ही नहीं है!




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