हिन्दी नाटक की रुपरेखा | Hindi Natak Ki Ruprekha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० हिन्दी नाटक की रूपरेखा ७. नाटक से सभी कहानी, गद्यमीत शादि का श्ानन्द प्राप्त होता है । दर ८, नाटक एक साधन है । ६. इस कला से श्रनुकरण की कला में प्रवीणता श्रातती है; जिससे लोका- चुरन्जन होता है । १०. श्री चन्द्रदेखर भट्ट के अनुसार “काव्य से संबंध रखते हुए भी नाटक कविता से भिन्न है। इसमें कल्पना को स्फृति देने की कविता की श्रपेक्षा कहीं अधिक है । कविता से नाटक को श्रलग करने वाली वस्तु रंगमंच है ।' ११. नाटक कलात्मक ग्रनुकरण प्रस्तुत करके सामाजिकों में रस का संचार करता है । साथ ही पैतृक विद्या को जीवित रखने में सहायक होता है ! इन विशेषताश्रों के कारण ही नाटक को साहित्य में 'काव्येपु नाटकं रम्यम्‌' कहा जाता हूं [न नाट्य वर्जनाएँं जो दश्य रंगमंच पर नहीं दिखाए जाते उन्हें श्राघुनिक शब्दावली में वर्जनाएँ कहते हैं। ये निपिद्ध प्रसंग सामाजिकों की रुचि का परिष्कार न करके व्याघात उत्प्त करते हैं। किन्तु श्राधुनिक नाटककार इन वर्जनाओं का प्रयोग सनिक्षंक भाव से करते है। वास्तव में इन के मिपेघध के मनो- वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक श्राघार हैं, थे प्रगलभ प्रलाप मात्र नहीं ! नाटक अपने युग का निर्मल दपण है । इनमें देश की संस्कृति भी यत्र-तन्र मुखरित हो उठती है । इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय नाटक भारतीय संस्कृति के प्रबल संरक्षक एवं माध्यम रहे है । साथ ही यह कहना भी श्रत्युक्ति न होगा कि भारतीय संस्कृति श्र भारतीय-जीवन दर्शन दोनों परस्पर एक दूसरे से श्रावद्ध हैं । नाटक-शास्त्रों पर इन दोनों का झ्रमिट प्रभाव लक्षित होता है । नाटक का प्राण तत्त्व रस सर्वेमान्य हूँ । रस श्रौर झानन्द दोनों पर्यायवाची है। अत: जो दृश्य रस की विधा तक सिद्ध होते है उन्हें वर्ज्ये दृश्यों के नाम से श्रभिष्चित किया गया है। ये प्रसंग सूच्य रूप में ही नहीं वरन दृद्य रूप में भी वर्जित माने गए है। इनकी सूची नीचे प्रस्तुत की गई है । १. बच, मृत्यु झादि दुःखद प्रसंग जो प्रेक्षक के हृदय में भास एवं करुणा का संचार करते हैं, उनको नाटकों में चिर्वासित किया गया हैं।




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