शब्दशक्ति और ध्वनी - सिद्धान्त | Shabd Shakti Aur Dhwani Siddhant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ छर ध्वनि सिद्धान्त 1 वर्णों का समूह पद कहाता है भर विशिष्ट पदों का समूह वाक्य । निर्तन्देह यह मान्यता निर्रर्थक है किन्तु किर भी यदि इसे स्वीकृत क्या जाता है तो केवल - व्याकरण-सम्बन्धी व्यवहार के लिए अथवा भाषा के अध्ययन को सुकर बनाने के लिए-- क पदानि असत्थानि एकम्‌ अभिन्‍्नस्वभावक चाक्यसू । तर अबुध- नोधनाय परदविशाग कलस्पित 11 -पुण्यराज वाक्यपदीय-टीका २.१९ ख पेन बर्णा विद्यन्ते वावयेष्ववयवा न च। पदानामत्यन्तं प्रविविकों न कप्चन ॥ बाकयपदीय २.७३ ग यथा पदे निभज्यस्ते अ्रकृतिप्रत्ययादय । अपोद्धारस्तथा वावये पदानासुपवणष्यते ।। वाक्यपदीय र. १० थोड़ा और स्पष्ट रूप में कहूँ तो वाक्य का श्रत्येक पद वस्तुत वाक्य में प्रयुक्त हो जाने पर ही अपने अभीष्ट अधें का दोतक बनता है । इससे पुर्वे वह मिरथेक सा-- मपितु निरथंक द्ी-होता है । लगभग ऐसी ह्वी मान्यता अस्विताभिधानवादी मीमांसकों की है जो अभिधा शब्द्शक्ति द्वारा अलग-अलग पदों का अर्थ त मानकर ६ अस्वित परस्पर-सम्बद्ध पदों के भर्थे का बोध स्वीकार करते है--अम्वितानामेवा- इशिघानं शब्दबोध्यत्वम तद्वादिवोधन्विताधशिघानवादिन काव्यप्र काश बाछ- बोधिनी टीका पृष्ठ २६ । इस मन्तव्य के सम्बन्ध में यो भी कह सकते हैं कि एक वाक्य अपने-आप में एक अक्ग इकाई है वह पद रूप कई इकाइयों का समूह सही है । अस्तु इसी सम्बन्ध में तीसरी शंका यह है कि वक्ता और श्रोत्ता के पारस्परिक शाधा- व्यवह्टार में अर्थात्‌ इनके द्वारा प्रयुक्त वाक्यों में किसी एक वाक्य की जिसे भाषा का है अपर पर्याय माना गया है स्थिति क्या होगी ? इसी प्रकार एक लघुकथा एक उपन्यास एक एक खण्डकाव्य अथवा एक सह्ाकाव्य आदि में प्रयुक्त बाकयों में . एक चाक्य की स्थिति क्या होगी ? इस शंका का समाधान साइहित्यदपेणकार विश्वनाथ से ने दिया है । पहले उन्होंने वाक्यों के उच्चय समूह को महादाक्य कहा है । यहा महाव क्य शब्द महान अथवा दीघें वाक्य का पर्याय नहीं है अपितु रामायण भारत आदिकाव्य-ग्रव्थों का वाचक है । मिनतु इसी प्रसंग में आगे चल कर स्वय किसी अज्ञात भाचायं का निम्नोक्त कथन प्रस्तुत कर इन महावावयों को भी वाक्य नाम दे दिया है सिटी स्वार्थबोघ । की साक्यानमेकवावयत्व पुत्त संहत्य जायते €।..... --सा० द० २ य परि० ०




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