हिंदी काव्य में अन्योक्ति | Hindi Kavya Me Anyokti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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् हन्दी-काव्य में म्रन्योक्ति पर साहित्यिक भाषाश्ों में सदा से झ्न्तर रहा है । इसमें सन्देह नहीं कि «साधारण भाषा ही निखरकर श्रन्त में साहित्यिक रूप प्राप्त करती है, किम्तु जब यह साहित्यिक रूप प्राप्त कर लेती है तो इसका रिक्त स्थान दूसरी जन- भाषा ले लेती है । किन्तु इतना श्रवश्य है कि जन-भापा तथा साहित्यिक भाषा दोनों भिन्न होती हुई भी परस्पर-सापेक्ष रहती है । साहित्यिक भाषा का मूल रूप तो जनवाणी में ही निहित होता है श्रौर वहीं उसका प्रेररणा-ख्रोत भी बनता है । साहित्य कवि की वाणी में अभिव्यक्त सानव-जीवन की विधिध श्रन- भूतियों एवं विचारों का संग्रह है । वह मनुष्य की श्रावश्यकताश्रों के श्रध्ययन भर उनकी पूर्ति एवं सांस्कृतिक श्रोर कलात्मक साहित्य स्फूृति तथा जागृति का कारण बनता है । क्योंकि मानव-जीवन सदा एक-जसा नहीं रहता, इसलिए साहित्य में भी एकरूपता नहीं होती । मानव-जीवन का समप्रि-रूप समाज नाम से श्रभिहित होता है भ्रौर समाज की विविध विचार-धाराओं एवं श्रनुभूतियों का समष्टि-रूप वाड मय ही साहित्य है । किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य में जहाँ मानव-जीवन के अ्नुभूतिएरं सुन्दर चित्र उतारे जाते हैं, वहाँ सुन्दर होने के त्साथ-साथ उनका सत्य श्र शिव होना भी वांछनीय है। साहित्य का काम केवल लोक-मनोरंजन नहीं है । वह प्रेमचन्द के श्रनु- सार ऐसा होना चाहिए कि “जिसमें जीवन का सौन्दर्य हो, सृजन की श्रात्मा हो, जो हममें गति, संघर्ष श्रौर बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं ।””* ..... हम कह भ्राए हैं कि साहित्य में मानव-हृदय के भावों की श्रभिव्यक्ति रहती है, किन्तु भावों से श्रभिप्रेत यहाँ वे भाव हैं, जो रमरणीय, स्थिर एवं च हों, साधारण नहीं । इसके अ्रतिरिक्त भावों साहित्य का व्युत्पत्ति: की भ्रभिव्यक्ति के साधन का भी सरस, कलात्मक निमित्त एवं प्रभावोत्पादक होना भ्रपेक्षित है । उसके द्वारा भावों को ऐसे मारमिक ढंग से रखना होता है कि वे प्रत्येक पाठक या श्रोता के हृत्पिष्ड को छूकर उसमें भी वैसा ही स्पन्दन, श्रान्दोलन एवं अनुभूति उत्पलन कर दें जैसी कि साहित्यकार के हृदय में उत्पन्न हुई होती है । इसमें साहित्यकार श्रौर पाठक भाव-जगतु में एक साथ हो जाते हैं प्रौर दोनों का यह सहभाव (दयो: सहितयो: भावः) साहित्य शब्द का_व्युत्यपत्ति-निमित्त है। इसे शास्त्रीय भाषा में हम 'साधारणीकरण' भी १... सभापति-भाषण, “प्रगतिशील लेखक-संघ', १९३६ ।




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