नयी तालीम | Nai Talim
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
561
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about धीरेन्द्र मजूमदार - Dhirendra Majumdar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)महत्व का नहीं है। मागंदशिका पडकर पास होने की
घात तो उठे जरूर नापसन्द लगती है. बयोंदि उसमें
विद्यार्थी नहों मागदरधिका ल्सिनेवाला पास हुआ है ।
नयी तालीम तो उसे ही सच्ची दिला कहेगी जिसे
बाल्व ने आत्मसात किया हो ।
बालक को दिया गया और दिया जानेवाला ज्ञान
आत्मसात करने के लिए कई चीजा वी जरूरत होती है
जिसमें अनुभव सबसे अधिक महत्व रखता है । समग्र
माक्षरी निशा वा आधार मूलालर और वणमाला ही
है। बर्णमारा की जानवारी के बिना वच्चां आग बढ
ही नहीं सदता । उठे पा लेने के बाद उसके लिए
बेद-बेदान्तों को पड़ना भी आसात हो जाता है । बयाकि
सभी नाषाएँ इन वावन अक्षरा की हो लीला है ।
बालक वो उच्च विद्या में या आनेवाली जिन्दगी में जो
कुछ समलना है. साम्य बैपम्य. भेद विभेद मिश्रण
बग।वरण, समन्वय-सामजस्य या विप्रह, इन सबने
तारतम्य के लिए बचपन के अनुभव ही वणमाला का काम
देत है। जिसकी सौ बचपन में ही चल बसी हां आर
जिसको अनाय आशम में बिसी वत्सल गृहपति की छाया
भें यहा होना पडा हो उप्त बच्चे ये सामने माँ घब्द
परे समय गृहपति का चित्र हो आयगा । उसी तरह
जो माँ के चदले मौसी के पस बडा होता है उस
बच्चे के लिए माँ दब्द का अनुवन्ध मौसी के साथ
रहता है. ।
यह बात अय भाव विभाव या अतुकूल प्रतिकूल
मदेदना वो भी लागू होती है । चवपन के विसी अच्छे
था बुर अनुभव से प्राप्त अच्छे या बुरे अल्प या विधेष
गहरे या छिछने, सकुचित या व्यापक अनुभवा के द्वारा
बालक आनेवाले श्ररना या समस्या को सुलझापगा ।
नयी हालीम की यह दूसरा वीनयाद है । नये
तालीम बुनियादी मूलाक्षर की तरह मानव जीवन के लिए
जो अनुभव बुनियादी माने जाते हैं उन्ह बालका की
कसा ध्यान में रखकर सहज रीति से शाला मे देने
वी कौतिय करती है । उसमें से यह सिद्धास्त फलित
होता है कि घाला एवं परिदार या छोटा सा समाज है।
कोई भी समाज अन्यो याश्रय परिश्रम और सहकारी
वृत्ति के बिना खड़ा नहीं हो सकता । इसीलिए शाला
अगस्त, ६६
में बच्चा की वक्षा के अनुव् उपयोगी परिश्रम शिसा
प्रक्रिया वा एक महत्वपूर्ण अग है ।
हम यह बहना नहीं चाहते कि इन सिद्धारता को
माध्यमिक आर उच्च शिक्षा में ठीक ऐसा हो अपनाया
जाय जेंसा प्राथमिक शिक्षा में। हो सकता हैं कि सिद्धान्त
यही रहने पर भी माध्यमिव और उच्च शिक्षा में पहली
सात ककाआ से कुछ अतग ही रहे, लेमिन पहली सात
वक्षाआ तक यानी प्राथमिक और फरजियात (अनिवार्य )
वक्षा में तो उस अपनाये बिना कीई चारा नहीं है ।
रद श्द श्
वालय ने जनम में पहले सदानी माताएँ आनेवाले
बालक के «िएकुरते सीती है पर वे सभी एक ही माप के
नहीं बनाता । कुछ बालक दे तीसरे महीन की उम्र में
काम आ से ऐस होते है कुछ छ. महीनें की उम्र होने
पर काम आ सकें ओर कुछ एक साल का बच्चा होने पर
उपयोग में आय एमें नाप के होते है। ऐसा ही लड
किया के गीने का भी होता है । गौने की तैयारी चार-
पांच साल पहले से होती रहती है. क्याकि गरीब
माता पिता इतने कपड़े थोडे ही दिना में बनवा नहीं पाते
पर बनवाने के समय भी माँ इस वात का ध्यान अवश्य
ग्खती है कि चौथे या पाँचव वप जब मेरी लडवी यह
कपड़ा पहनेगी तव उसकी देह कैसी होगी और लूडवी
की जरूरत कया होगी ।
यह वात शिक्षा के विपय से हम स्याऊ में नहीं रसते।
आज प्राथमिक शाला म प्रविप्ट होनवाला पाँच साल वा
बालव इक्वीसवें व का होवर जब अध्ययन समाप्त
करके प्रभावकारी नागरिक बनेगा तब उसकी और जिस
जगत में वह रह रहा है उसकी कौन-कौन-सी आवश्य
कताएँ हागी ? उस समय के जगत के लिए आवश्यक
कमकौदशल, अनुरूप भावनाएँ अपर बीपद्धव सामग्री हमें
उन्हे दिक्षा के रुप में देनी होगी ।
अगर यह वात ध्यान में न रही और हम मानने
रहे कि आज को जो अ वद्यक्ताएँ है वे बीस साल
बाद वी भी होगी और इसी दृष्टिकोण से वाल को
हैँंपार वरते रहे तो वालव उस जगत का स्वामी तो
नहीं ही बनगां, इम जगत के अनुरूप भी नहीं बत
पायगा ।
नर
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