संक्षिप्त जायसी | Shankahipt Jayasi

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Shankahipt Jayasi by शम्भूदयाल सक्सेना - Shambhudayal Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हूँ व. 4 सन नव से सत्ताइस अहा। कथा-अरंग-वेन कवि कहा | कि इस कथन के अनुसार उनका जन्म हिजरी सच *%५ इंस्वी सूर्थात्‌) सन्‌ १४९२ के लगभग ठददरता है। जायसी ने अपने पंझावत कान्य < के थ्रारंम में सेष्टि और सष्टिकर्ता को याद करने के बाद फारसी के ससनवी काव्य की परंपरा का झ्चुकरण करते हुए 'शाहेवक्त' शेरशाह की भी प्रशंसा की है श्रौर चूँकि शेरशाह के शासनकाल का श्वारंभ ३४० इंस्वी से होता है, इसलिए यही समय ज्ञायसी का भी समभना चाहिये। एक प्रचलित जनश्रुति के अ्रजुसार इनका जन्म एक द्रिद्र कु में हुद्ना था। जव ये सात वर्प के बालक थे तभी इनके शीतला का भ्रकोप हुआ । उस वीमारी में इन्हें म्राण संकट तक उपस्थित हो गया । इनकी माता ने मकनपुर के शाहमदार की मनौती मानी, तब कहीं जाकर ये स्वस्थ हुए । इस बीमारी से ये चच तो गये परन्तु इनकी एक आँख जाती रही तथा एक कान की श्रवणुशक्ति भी नष्ट हो गई । नीचे दिये दोहे की झर्धाली से प्रकट है कि इनकी वाई' आँख और बायाँ ही कान जाते रहे थे-- सुहमद वाई दिलि तजा; एक सरवन, एक आँखि । एक झाँख कवि सुहमद गुनीं” इस प्रकार श्पनी कुरूपतवा का उदलेख करते हुए भी जायसी उस पर निराश श्र दुखी नहीं प्रतीत होते । उसे वे परमात्मा की देन समझकर स्वीकार करते हैं । तभी तो उन्हें देखकर उनकी कुरूपता का उपहास करनेवाले से वे पूछ बेठते हैं कि-- मोहिं का हँसेपि, कि कोहरहि ? श्रथात्त तू मुझ पर हूँसता हैं या मेरे बनानेवाले कुमहार पर !




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