हलचल के पंख | Hulchal Ke Pankh

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Hulchal Ke Pankh by डॉ. मोहन अवस्थी - Dr. Mohan Avasthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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|| | के कक दा हुआ क्या, रातभर कोई अगर सोया नहीं है यहीं कया कम कि उसने दिन अभी खोया नहीं है उन्हीं को नींद की चाहत कि सपने देखते जो कटीला कंकड़ों का एथ कभी टोया नहीं है गया है 7 बदल फिर गंध में संक्रेत भी है कि तुमने आंसुओं से घाव वह धोया नहीं है उदासी क्यों अभी तक और रूखापन वहीं क्यों तुम्हारा मन किसी के स्नेह ने मोया नहीं है न तो मंडित, न है उन्नत, न जीवन में चमक आती हृदय ने क्षण-कणों का हार संजीया नहीं है सहूं. कैसे हज़ारों लेप चेहे. पर दढ़े हैं कि मैंने बोझ इतना तो कभी ढोया नहीं है भरकर भीड़ जिसमें हद नहीं है घिल्ल॒पों की यहां हर एक है कुछ इस तरह, गोया नहीं है सुखी उसको समझिए, दुश्ख को पहचानता जो दुखी घह, जी किसी की याद में रोया नहीं हैं 2. हलचल के पंख हक न गला




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