भारतीय कला को बिहार की देन | Bhartiya Kala Ko Bihar Ki Den

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Bhartiya Kala Ko Bihar Ki Den by विन्देश्वरी प्रसाद सिंह - Vindeshwari Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. पहला अध्याय... ऊ व्यक्ति तथा समाज की प्रतिभा एवं सम्रद्धि का उचित व्यय घर्म-सम्बन्धी सभी उपकर्मों में किया जाना कत्तव्य माना गया था । _ अभी बहुत दिन नहीं हुए कि भारतीय कला को पश्चिमी विद्वान बहुत ही हेय दृष्टि से देखते थे । पश्चिमी कला के मर्मज्ञ और लोचक भारतीय मूर्तियों में कला का बिल्कुल अभाव ही नहीं, उसमें अत्यन्त भद्दापन और कृत्रिमता देखते थे । “विक्टोरिया अलबर- संग्रहालय” की भारतीय कत्ता की हस्तगुटिका में प्राचीन भारतीय मूत्तियों के. सम्बन्ध में लिखा है--“पौराशिक देवी-देवताओं की मूत्तियों के विंकट और विलक्षण रूप कला के विकास के लिए एकदम अयोग्य हैं; और इसीलिए भारत में चित्रकला और मूत्तिकला ललित कला के रूप में अज्ञात हैं ।”” “सर जॉज बडउड” के इस विचार के अलावा ब्रिंटिश- प्राध्यापक वेस्टमकोंट् ( शा८860०8००९ ) ने भी सन्‌ १८६४ हई० में इसीसे मिलता-जुलता विचार व्यक्त किया था--'““भारतीय मूत्तिकला से, कला के इतिहास के अध्ययन में, कोई मदद नहीं मिलती है, ओर इसकी हीनता इसे ललित कला की श्रेणी से अलग कर देती है ।” मिस्टर “इ० वी० हेवेल” और “ए० के० कुमारस्वामी” ने ऐसे श्रान्तिमूलक विचारों का खोखलापन ही नहीं सिद्ध किया; बल्कि इन अनगल प्रलापों के पीछे संकुचित मनोब्रत्ति और अज्ञानता का पर्दाफाश किया है । अब पश्चिमी विद्वान, भ्म्रतीय कला के प्रति आदर और सहानुभूति का भाव रखते हैं--यद्यपि वे इसे ठीक-ठींके समभाने में बड़ी कठिनाई महसूस करते हैं; किन्तु उनकी ऐसी परेशानी बोधगम्य है । किसी भी राष्ट्र की कला उसके जीवन और आत्मा का प्रतिविम्ब है । राष्ट्र या जाति की अनुभूतियों, भावों या उसके अआदर्शों के अलावा घामिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा उनके आध्यात्मिक तत्त्वों को जानने के लिए उस जाति की कलात्मक कृतियों का सहानुभूतिपूणा अध्ययन जरूरी है । भारतीय कला सबंदा धर्म की सहचरी रही है । राय या हिंन्दू-ध्म ने अदूभुत सहिष्णुता तथा अन्य घर्मों और संस्क्ृतियों के विशिष्ट गुणों को आत्मसात्‌ करने की योग्यता दिखाई है । शायद, इसीलिए हिन्दू-घम सनातन रह सका और इसमें जीवनी शक्ति का बराबर प्रवाह रहा । ऐसे गतिशील धम और संस्कृति में अगणित धार्मिक परम्पराओं और पौराणिक कथाओं का समावेश अनिवाय था । भारतीय आचार्यों और दाशनिंकों. ने इस स्थूल सत्य को भी मान लिया किं जाति में सभी व्यक्तियों का बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास एक-सा नहीं होता है; किन्तु अपने निर्धारित 'लक्य की प्राप्ति में, प्रत्येक व्यक्ति की एक-सी अभिलाषा उचित श्र प्रशंसनीय है । इसलिए, हिन्दूधमं में, अपने-अपने अधिकार . और योग्यता के आधार पर, घ्मपथ की विभिन्न पगडंडियाँ निर्धारित की गई अथवा मान ली गई' । एक स्तर के धर्मा्थियों के लिए जहाँ मूर्ति की आवश्यता अनिवाय दे, वहाँ पहुँचे-हुए अध्यात्मवादियों के लिए मूत्ति का सहारा अत्यन्त अनावश्यक है । ब्रत्तों की पूजा भी इसी तक के झाघार पर एक सीमा तक स्तुत्य है। इसलिए हम भारतीय कलाओं में--जो भारतीय धर्म के रूप और आन्तरिक अनुभृतियों की झ्भिव्यक्ति का माध्यम है इन .. सभी . चीजों का समावेश पाते हैं । .विंदेशी विद्वान्‌ भारतीय. धर्म के इतिहास और इसके विभिन्‍न रूप का ज्ञान रखे विना भारतीय कला के सूल्यांकन करने का. विफलप्रयास करते हैं और वे दास्यास्पद बनते हैं ।




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