विश्वसभ्यता का संक्षिप्त इतिहास भाग - १ | Vishvasabhyata ka sankshipt itihas part 1

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Vishvasabhyata ka sankshipt itihas part 1 by विन्देश्वरी प्रसाद सिंह - Vindeshwari Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे मनुष्य के साधन | 10पुणत जााटा। ) अपने हथियारों में सुधार लाकर हो मनुष्य अपने को जीवित रख सका हूँ और अपनी संख्या बढ़ाते रहा हैं । इनके जरिये ही वह बाहरी दुनियाँ के खतरों से अपने को बचाता हें था प्रकृति के भंडार से अपनी कमों की पुरति करता हैं । अपने इन हथियारों (वृर्णपृ-काटपाड) से हो बह प्रकृति से संघर्ष और सहयोग करता रहा हैं । अत्थेक जीव को जी विको- पार्जन के लिए अपनी रला करने के लिए साधन प्राप्त हैं । पर मनुष्य और प्ुओं के प्रसाधन में बहुत अन्तर है। पथ के हथिपार उसके वारोंर के अंग हैं. जिसे बह बरोर के साथ ही डोता हैं जेसे सिंह अपना पबणा खरहे व भालू अपन घने बाल । पर रूनष्य के साधन उसके शारोर के अंग नहीं है । उसे तो बाहरी हथियारों (10015) पर ही निर्भर करना हें । पु ओर मनुष्यों के इस बड़े अन्तर की तह में ही सम्यता को उत्पत्ति समझी जा सकती है। अपने साधनों को शरीर के साथ ही बराबर ढोते रहने के कारण पशु स्वेदा जाकमण करने के लिए च प्रत्याकमण रोकने के लिए तयार रहता है पर उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह हे कि वह परिस्थितियों के अनुसार अपने हथियार को न बदल सकता हें और न उनमें कोई बड़ा सुघार ला सकता हैं। इसक्तिए हाथों सिह से बराबर कमजोर ही रहेगा चहें बिल्ली का सामना कमी नहीं कर सक्तंग । ठंडे देश में रहनेवाले घने केशवालें खरहे गर्म देश में जीवित नहीं रह सकते क्योंकि वे अपने साधन को परिस्थिति के अनुकल न बदल सकतें है न छोड सकतें हैं । ऐसा सम्भव हैं कि आरम्भ में मनुष्य के भी खतरनाक नाखून व जहरोलें दाँत रहे हों । पर जब कि अन्य पत्ुओों के साधन आरम्भ से आजतक एऐक-से हीं रह गये है मनुष्य अपने उन न्यून शारीरिक हथियारों को भी छोडता रहा है और उसके स्थान पर वह नंये-तय हथिशार बसाते रहा हैं। पे ह्ियार उसके झरीर के अंग नहीं है इसलिए बह उसको जब चाहें प्रयोग करता हे जेब चाहे




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