आगम साहित्य एक अनुचिंतन | Agam Sahitya Ek Anuchintan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
110
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आगम साहित्य एक अनुचिन्तन
आगम एव उसके व्याख्या-साहित्य का अध्ययन करने पर यह स्पप्टतया ज्ञात होता है, जबकि
दवेतावर और दिगम्बर परपरा में साहित्य को लेकर मतभेद तीग्र होने लगा, तब अग वाह्य आगम-
साहित्य को भी गणधर-कृत मानने की प्रवृत्ति चली और आगे चलकर वह वढती ही गई, यहाँ तक कि
आचार्यों द्वारा रचित पुराण-साहित्य भी गणघरों की रचना कही जाने लगी ।
इतनी लम्बी चर्चा का निप्कप यह है कि अग वाह्म को गणधर कृत मानने की परपरा अर्वाचीन
है और वह परिस्थिति वक्ष चालू हुई । परन्तु, यथाथें मे अग-साहित्य ही तीर्थंकर भगवान की वाणी है
और गणघर उसके सूत्रकार हैं। अग वाह्म आगम-साहित्य के रचियत्ता गणधर नही, स्थविर है और
अनेक आगमो के साथ उन स्थविरो का प्रणेता के रुप में नाम जुड़ा हुआ है, जिसका हम ऊपर उल्लेख
कर आए है ।
श्रागम-परिषद्
भगवाचू महादीर के निर्वाण के पश्चात् दूसरी शताब्दी (वीर स० १६०) मे सन्दराज के समय
में पाटलिपुत्र--पटना में हवादश वर्ष का भीपण दुप्काल पड़ा ! दुरभिक्ष के कारण श्रमण-श्रमणी का निर्वाह
होना कठिन हो गया । इसलिए वे यहाँ से अन्यश्र विहार कर गए और कुछ विशिप्ट श्रमणो ने अन-
न ब्रत करके समाधि-मरण को प्राप्त किया । ऐसी स्थिति में श्रुत-साहित्य के समाप्त होने का-
भय होने लगा । । क्योकि उस समय लिखने की परपरा थी नहीं । समस्त श्रुत-साहित्य कण्ठस्थ करने
करवाने की परपरा थी । अत दुष्काल के समाप्त होने पर श्रमण-सघ पाटलिपुत्र मे एकप्रित हुआ भर
अपनी-अपनी स्मृति के अनुसार एकादश अगों को व्यवस्थित किया । इस सम्मेलन को पाटलिपुत्र
परिपद् कह सकते हैं। इसमें श्रमण-सघ ने एकादल अगो के पाठो को स्व सम्मति से स्वीकार किया
और उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की । परन्तु उक्त परिपद् में द्वादशम अग वृष्टिवाद का
कोई नाता नहीं था। उस समय केवल आचायें भद्रवाहु ही सम्पूर्ण द्वादशागी--चौदह पूव के ज्ञाता
थे और वे उस समय नेपाल की गिरि-कन्दराओ में महाप्राण नामक ध्यान की साधना मे सलग्न थे )
जाय भ तम्मि समए दुक्कालों दोय-दसय वरिसाणि ।
सब्यों. साहु-समूहों गम तझो. जलहितीरेसु ॥
तढुवरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागओ विहिया ।
सघेण सुयविसया चिंता. कि. कस्स मत्येति ॥
ज जस्स आसि पासे उद्देस्स ज्कयणमाइ सघडिउ ॥
त. सब्व एक्कारय. श्रगाइ तहेव ठवियाइ
उआचाय हरिभद्र कृत उपदेदा-पद
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