आगम साहित्य एक अनुचिंतन | Agam Sahitya Ek Anuchintan

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Agam Sahitya Ek Anuchintan by मुनि समदर्शी - Muni Samdarshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आगम साहित्य एक अनुचिन्तन आगम एव उसके व्याख्या-साहित्य का अध्ययन करने पर यह स्पप्टतया ज्ञात होता है, जबकि दवेतावर और दिगम्बर परपरा में साहित्य को लेकर मतभेद तीग्र होने लगा, तब अग वाह्य आगम- साहित्य को भी गणधर-कृत मानने की प्रवृत्ति चली और आगे चलकर वह वढती ही गई, यहाँ तक कि आचार्यों द्वारा रचित पुराण-साहित्य भी गणघरों की रचना कही जाने लगी । इतनी लम्बी चर्चा का निप्कप यह है कि अग वाह्म को गणधर कृत मानने की परपरा अर्वाचीन है और वह परिस्थिति वक्ष चालू हुई । परन्तु, यथाथें मे अग-साहित्य ही तीर्थंकर भगवान की वाणी है और गणघर उसके सूत्रकार हैं। अग वाह्म आगम-साहित्य के रचियत्ता गणधर नही, स्थविर है और अनेक आगमो के साथ उन स्थविरो का प्रणेता के रुप में नाम जुड़ा हुआ है, जिसका हम ऊपर उल्लेख कर आए है । श्रागम-परिषद्‌ भगवाचू महादीर के निर्वाण के पश्चात्‌ दूसरी शताब्दी (वीर स० १६०) मे सन्दराज के समय में पाटलिपुत्र--पटना में हवादश वर्ष का भीपण दुप्काल पड़ा ! दुरभिक्ष के कारण श्रमण-श्रमणी का निर्वाह होना कठिन हो गया । इसलिए वे यहाँ से अन्यश्र विहार कर गए और कुछ विशिप्ट श्रमणो ने अन- न ब्रत करके समाधि-मरण को प्राप्त किया । ऐसी स्थिति में श्रुत-साहित्य के समाप्त होने का- भय होने लगा । । क्योकि उस समय लिखने की परपरा थी नहीं । समस्त श्रुत-साहित्य कण्ठस्थ करने करवाने की परपरा थी । अत दुष्काल के समाप्त होने पर श्रमण-सघ पाटलिपुत्र मे एकप्रित हुआ भर अपनी-अपनी स्मृति के अनुसार एकादश अगों को व्यवस्थित किया । इस सम्मेलन को पाटलिपुत्र परिपद्‌ कह सकते हैं। इसमें श्रमण-सघ ने एकादल अगो के पाठो को स्व सम्मति से स्वीकार किया और उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की । परन्तु उक्त परिपद्‌ में द्वादशम अग वृष्टिवाद का कोई नाता नहीं था। उस समय केवल आचायें भद्रवाहु ही सम्पूर्ण द्वादशागी--चौदह पूव के ज्ञाता थे और वे उस समय नेपाल की गिरि-कन्दराओ में महाप्राण नामक ध्यान की साधना मे सलग्न थे ) जाय भ तम्मि समए दुक्कालों दोय-दसय वरिसाणि । सब्यों. साहु-समूहों गम तझो. जलहितीरेसु ॥ तढुवरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागओ विहिया । सघेण सुयविसया चिंता. कि. कस्स मत्येति ॥ ज जस्स आसि पासे उद्देस्स ज्कयणमाइ सघडिउ ॥ त. सब्व एक्कारय. श्रगाइ तहेव ठवियाइ उआचाय हरिभद्र कृत उपदेदा-पद श्ड




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