तीर्थंकर | Tirthankar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ५ ))
इस कथन के प्रकाश में तुलनात्मक त्तत्वज्ञान के झ्रम्यासी विद्वान
सैनघर्म का अस्तित्व वेदों के पूर्वकालीन स्वीकार करते हैं क्योकि जेनधमं
के सस्थापक भगवान ऋषभदेव का श्रस्तिस्व वेदो के भी पू् का सिद्ध होता
है | इससे उन लोगों का उत्तर हो जाता है, जो जेनधमं का स्वतंत्र अस्तित्व
स्वोकार करने में कठिनता का अनुभव करते हैं । प्रकारड विद्वान डाक्टर
मंगलदेव एम, ए. डी. लिट् , काशी के ये विचार गभीर तस्वचिंतन के
फल स्वरूप लिखे गए, हैं, “बेदों का, विशेषतः ऋग्वेद का काल श्रति प्राचीन
है। उसके नादसीय सदश सूक्तों और मंत्रों में उत्कृष्ट दाशनिक विचारधारा
पाई जाती है। ऐसे युग के साथ जबकि प्रकृति के काय निर्वाइक तत्तद
देवताश्रों की स्तुति श्वादि के रूप में श्रत्यंत जटिल वैदिक कर्मकांड ही झाय॑
जाति का परम ध्येय हो रहा था, उपयुक्त उस्कष्ट दाशनिक विचार की संगति
बेठाना कुछ कठिन ही दिखाई देता है। हो सकता है कि उस दार्शनिक
विचारधारा का आदि खोत वैदिक धारा से प्रथक या उससे पहले का हो ।”
“पघ्रह्मसून्न शाकरभाष्य में “कपिल-सांख्यद्श॑न” के लिये स्पष्टतः
अवैदेक कहा है । ( फुटनोट--“न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं
श्रद्दातं शवयम् | ब्र० सू० शां० सा० २1११)? ) इस कथन से तो हमें कुछ
ऐसी ध्वनि प्रतीत होती है, कि उसकी परम्परा प्राष्वेदिक या वैदिकेतर हो
सकती है । जो कुछ भी हो, ऋग्वेद संहिता में जो उत्कृष्ट दार्शनिक घिचार
कित हैं, उनकी स्वयं परम्परा श्र भी प्राचीनतर होनी चाहिये | डॉ०
मज्लदेव का यह कथन ध्यान देने योग्य है-(१) “जेनद्शन की सारी
दाशनिक दृष्टि वैदिक दार्शनिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही नहीं, भिन्न भी है ।
इसमें किसी को सदेह नहीं हो सकता । (२) हमें तो ऐसा प्रतीत होता है, कि
उपयुक्त दाशंनिक धारा को हमने ऊपर जिस प्रार्वैदिंक परम्परा से जोडा है,
मूलत: जैन-द्शन भी उसके स्वतन्त्र-विकास की एक शाखा हो सकता है |
(१) जैनदशन की भूमिका, ऐष्ठ १०
(२) स्व० जमन शोधक विद्वान डा० जैकोबी ने जैनधर्म, की
थक
स्वतन्त्रता तथा मौलिकतता पर झन्तर्रोष्ट्रीय काग्रेस में चर्चा करते हुए कहा
था--
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