ह्रदय की परख | Hirday Ki Parakh

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Hirday Ki Parakh by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हृदय की परख पहला परिच्देद रात बढ़ी श्ँपे री थी । ११ बज चुरे थे, बादल गरज रहे थे, बिजली कढ़क रही थी, और मूसलधार वर्षा दो रही थी । हाथों दाथ नहीं सूमता था, चारो ओर सन्नाटा छा रहा था । लोकनायर्सिंद ्पने खेत के पासताले भोपड़े में चुप नाप बैठा हुआ गुड़गुड़ी पी रहा था। अचानक उसे घोड़े की ठाप के शब्द सुनाई दिए । पास ही 'झाले में मिट्री का एक दिया टिमटिमा रहा था ! उसको बत्ती एक तिनके से उसका- कर, उसने 'झाँखों पर हाथ रखकर अंधेरे में देख्ग कि ऐसे बुरे वक़्त में कोन घर से बाहर निकला है। थोड़ो देर ब्राद किसी ने उसका द्वार खटखटाया । लोकनाथ ने भह श्ाकर देखा, एक सबार पानी में तर-बतर खड़ी है, शोर उसके हाथों है एक नवजात बालक है । बातक दो ही चार दिन का होगा । सबार ने बूढ़े से कद्दा--'महाशय ! कया श्राप कृपा करके मेरी कुछ सद्दायता करेंगे ? 'आाप देखते हैं; में बिलकुल भीग गया-- रात भी बहुत बीत गई है; कुछ ऐसी ही घटनाएँ हो गईं जिससे इस बालक को ऐसे कुपबसर पर बाहर ले झाना पढ़ा । क्या झापसे कुछ झाशा कहूँ ?”




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