हिन्दी की आत्मा | Hindi Ki Atma
श्रेणी : स्वसहायता पुस्तक / Self-help book
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
99.3 MB
कुल पष्ठ :
410
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)20 हिन्दी की आत्मा छान पर फस चढ़ाने के लिए काँस के पूले भी नहीं जुटा पाता है वह अपने लोक गीतों को लिपि बद्ध या शिला वद्ध नहीं कर सकता । लेकिन यह तो नहीं कहा जा सकता कि उस गरीव आदमी की कोई शापा नहीं होती है । हमारे देवा के विद्वान सदा दुभापिए रहते हैं । वे राजा और प्रजा की दोनों भाषाओं को जानते हैं । आचार्य केशव दास ने यह अवश्य कहा है कि-- भाषा बोलि न जानहीं जिनके कुल के दास | तिन भाषा कविता करी जडगति वे दाव दास | लेकिन यह दोहा उनकी विनम्रता ही प्रदर्शित करता है. सच्चाई नहीं । यहाँ आचार्य दास ने कहा है कि उन्हें भापा नहीं आती है क्योंकि उनके दास भी संस्कृत ही हैं लेकिन सच्चाई यही है कि उन्हें और उनके कुल के सभी दासों को भाषा अच्छी तरह आती थी । इस प्रकार अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग अलग जन भापाएँ बोली जाती हैं । एक राज भाषा का अधिकार कई भौगोलिक जन भाषाओं तक रह सकता है । प्राचीन काल के संस्कृत नाटकों में स्त्री और बूद्र संस्कृत नहीं बोलते हैं । वे केवल प्राकृत बोलते हैं । प्राचीन भाषाओं के विद्वान बताते हैं कि संस्कृत नाटकों में जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ है वह रूढ़ प्राकृत है । प्राकृत एक नहीं रही होगी बट्कि हर भौगोलिक क्षेत्र में अलग अलग प्राकृतें रही होंगी । हम प्राकृत के कई प्रकार सुनते भी हैं । लेकिन संस्कृत के नाटकों में एक ही प्राकृत का प्रयोग मिलता है । यह ऐसी रूढ़ प्राकृत है कि यह भी निश्चित नहीं किया जा सका है कि यह किस क्षेत्र की प्राकृत रही होगी । संस्कृत नाटकों में जिस प्राकृत का पहली बार प्रयोग किया गया है वह किसी क्षेत्र विशेष की प्राकृत रही होगी । उसका शक विस्तृत जनाधार रहा होगा । इस वात की पुरी पुरी सम्भावना है कि राजधानी के क्षेत्र की आम जनता उसे बोलती रही होगी । वाद में राजधानी से दूर के क्षेत्रों की विभिन्न जन भाषाओं पर भी वहीं प्राकृत आरोपित कर ली गई होगी 1 यहाँ मैं अपने समय का उदाहरण रख सकता हू । प्रेमचन्द का उपन्यास क्मंभूमि दूरदर्शन पर सीरियलाइज किया गया है । उसके एक॑ सी रियल में 1936 के हरिद्वार की कहानी है । हरिद्वार में उपन्यास के नायक की एक बुढ़िया से बातचीत होती है । बुढ़िया अपने को सलोनी काकी कहज़वाना चाहती है । मुख्य बात यह है कि यह उपन्यास खड़ी बोली का है लेकिन हरिद्वार की सलोनी काकी खड़ी बोली नहीं बोलती है । उसमें इस बुढ़िया को ब्रज भाषा या अन्य कोई पूर्वी बोली जिसका मै निर्णय करने में अक्षम हुं बोलते हुए दिखाया गया है । मैं यह कहना चाह रहा हू
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