न्यायसिद्धान्तमुक्तावली | Nyaysidhantmuktawali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका । (९. शिष्यहद्दी व्यासदेव हों देसा जानिये १ । और जिस वासिष्ठ के भोथेको आप महर्षिवाल्मीकिकत मानतेहें वह तो शंकरस्वामीकीदी झिष्यमण्डिलीमेंसे किसी शंक- रानन्दादि विद्वानका लेख है. आप सोचें तो सही कि यदि यह अन्य शंकर स्वामीसे अ्रथम होता तो जैसे मनु गीता महाभारत विप्जुपुराणादिके वचन जगह २ पर भाष्यम आते हैं, कोई इसका वचन या प्रकरणभी न आता? परन्तु शारीरक मात्रमें योगवासिद्की नाम तक नहीं है; इसछिये यह प्रन्य सर्वथा आधुनिक है २। खण्डन मण्डनकी युक्ति तो खड्की तरह बादी प्रतिवादी दोनोंको समान है वह जिसके पास दृढ होगी उसीका विजय होगा... केवछ अद्वैत वादको युक्तिप्रधान मानना श्रम दे २ । एवं अतिविचारमें जैसे च्छा- न्दोग्यमें £'तद्वैके आइरसदेवेदमग्र आसीतु) ” इत्यादि वचनोंसे चावाक सिद्धान्त का निरास कियांहे, वेसेद्दी “(मृत्यो! स गरत्युमापत )' इत्यादि कठ या वाजस- नेयि वचनेंसि बौद्धांका क्षणिक विज्ञान वाद निरास कियादे अथात्‌ जो इस आत्मामें क्षणिक विज्ञानरूपेण नानापना देखता हे बह वारंवार यमयातना सदनपूर्वक जन्मम- रणको प्राप्तहोता है. एवं “ द्वितीयाद्े ”' इत्यादि श्रुतिअनुवादक अर्थवादरूपा है. भय दसरेहीसे हुआ करताहे, इसमें किसीकोसन्देद दी नहीं; परन्तु दूसरे विद्यमानकोभी भयकी. भीतिसे उसकी न मानना मूखता है.कपोत नेत्र निमीठनसे बिडाला्भाव वस्तुतो नईीं होता एवं ५ अथ योए़न्यां देवतामुपासते,?” इत्यादि वाजसनायि बवचनकाभी अमेद भावनति उपासनामें तात्पर्य है, भाव यह कि भेद भावना रखने से यदि लोक में मित्र का चित्तभी. स्वच्छ नहीं रहता ते। सर्वज्ञ देवतासे मेदभावना रखनेसे उपासनाका क्या फल दोगा!इसीछि- ये भेद भावना से उपासना करने वाठेको अथात्‌ तन मन धन से बिना देवता के नामसे केवल घंटे बजानेवाले मूर्ख भक्त को श्रुति देवों का पशु कहतीडे अन्यथा एक आत्मा में उपास्य उपा- सक भावादि विरुद्धघमेंका समावेशभी तो सवंथा बुद्धिविरुद्ध कल्पनाहे-इत्यादि। एवं स्वदेशीयोंका परस्पर खण्डन मण्डनावलोकनसे विदेशी विद्वानीकिभी महर्षियों के सिद्धान्त पर आक्षेप करनेका अवसर मिला है. वह यह कहतेहैं कि ' गुरुणी द्वे यह तथा ' द्योनिमितिको द्रव: ' यह इत्यादि कई एक स्थलॉंमें महर्षि कणाद का सिद्धान्त अज्ञात पूर्वक है क्योंकि हम ( «००९०, ? बायु मापक यंत्रसे वायुमें बेझि का अनुभव करा सकतेहें. एवं दिम करकादिजकठमें भी नेमित्तिक द्रवण अनुभव सिद्ध है इत्यादि २ इसका उत्तर हम संश्षेपसे यह कहते हैं कि यह विदेशियोंके- अल्लिप महर्षि सिद्धान्त मर्माज्ञात पूर्वकरें; क्योंकि कणाद महर्षिने पदार्थोके स्वरूप प्रायः दो तरहके निझपण किये हें; एक तात्विक्र स्वरूप जेसे कि “ शीतस्पशवत्य आप, उष्ण स्पर्शवत्तेज;. रूपरदितस्पर्शवान वायु: ” इत्यादि । दूसरा साधम्य॑. वैषम्य॑ निक-पणमसद्मे. पदार्थोका ठोकस्थतिके अनुरोधसे




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