जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा | Jayapur Khaniya Tattwacharcha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
428
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रकाशकोय वक्तव्य श्१
आचायंकल्प पं० श्रो टोडरमलजों तो यहाँको विभूति थे हो । श्री शाह पं० दोपचन्दजी काधलो वाल, श्री
प० गुमानी रामजी, श्री पं० जयचन्दजों छात्रड़ा, श्री पं० सदासुखजी और श्रो पं० दौलतरामजों आदि गण्य-
मान्य सम विद्वान भो जयपुरकी हो देन है । इन सब विद्वानोंने अपने जोवनकालमें जो साहित्यकों सृष्टि को
है उमसे पूरा जैन समाज अनुप्राणित हुआ है। इसलिए इस नगरका वातात्रण तत्त्वचर्चाके लिए उपयुक्त
रहा है ।
इसे तो व्रिधिकी विडम्बना हो कहनी चाहिए कि दिगम्बर परम्पराम पज्य श्रो कानजों स्वामोके
दोश्नित होनेकें बाद समाजमें मतभेद प्रावत्य दृष्टिगोंचर होने छगा । पूज्य श्रों कानजों स्वामोका त्याग
अपू्व है । दिगस्बर परम्परा हो मोक्षमागके अनुरूप सनातन समीचोन परम्परा हें इसको
व्यापक घोषणा इस कालमें यदि किसके त्यागने की दे तो वे एकमात्र पूज्य श्री कानजी स्वामी
हो हैं । उनके व्यक्तित्व, त्याग, त्रिद्धता और वक््तृत्व आदि गुणोंके तिपयमे जितना भी लिखा जाय थोड़ा
है । माक्षमागंके अनुरूप अध्यात्मका आत्मानुमवी ऐसा अपन बक्ता इस कालमें हम सबके लिए सुलभ हैं इसे
में हम सबका महान पृ्योदय हो मानता हूँ । उनके पवित्र सानिध्यकों छाया चिर कालतक हम सबक ऊपर
बनी रहे यह मेरी मंगल कामना है ।
यों तो स्वपरके कल्याणके लिए जिन मंगल कार्योंका प्रारम्म किया जाता हैं उनके मध्य कुछ न कुछ
बाघ।एं उपस्थित हुआ हो करती हूं यह संसारका नियम है । पर उन बाधाओंकों बाघा न शिनकर जो महान
पुरुष होते हैं वे अपने उद्ष्टि कार्योमे हो लगें रहते हैं यही उनके जीवन की सर्वोपरि विशेषता होती है ।
इस कसोटोपर जब हम पूज्य श्रां कानजों स्वामोको कसकर देखते-परखते हूं तो वे महानूसे महानुतर ही
सिद्ध होते हैं । उनके इस लोकोत्तर गुणका पूरा समाज अनुवर्ती बने यह मेरी अन्तःकरणकों पवित्र भावना
है। विदवास है कि पूरा समाज कालान्तरमें उनकी इस महत्ताको अनुभव करेंगा ।
जैसा कि में पूर्वेमें निर्देश कर आया हूँ जयपुर सदासे तत्त्वचर्चाका केन्द्र रहा है। जब इस कालमें
अध्यात्मकों लेकर विद्वानोंमें मतभेद बढ़ने लगा ओर इसको जानकारी पूज्य श्रो १०८ आचायं शिवसागरजों
हाराज और उनके संघकों हुई तब ( उनके निकटवर्तों साधर्मो भाइयोंस ज्ञात हुआ है ) पूज्य श्री आचाय॑
महाराजने अपन संघ्मे यह भावना व्यक्त को कि यदि दोनों ओरके सभो प्रमुख विद्वान एक स्थानपर बैठकर
तत्त्वचर्चा द्वारा आपसो मतभेदकों दूर कर ल॑ तो सर्वोत्तन हो । उनके संघमें श्रो ब्र० सेठ हीरालालजो
पाटनो (निवाई) भौर श्रों ब्र० लाइमलजो जयपुर दान्तपरिणामो और सेवामावों महानुभाव हैं । इन्होंने
पूज्य श्री महाराजको सद्भावनाकों जानकर दोनों ओरके विद्वानोंका एक सम्मेलन बुलानेका संकल्प किया ।
साथ हो इस सम्मेलनके करनेमें जो अथंब्यय होगा उसका उत्तरदायित्व श्रो ब्र० सेठ होरालालजों (निवाई)
ने लिया । यह सम्मेलन २०-९-१९६३ से उक्त दोनों ब्रह्मचारियोंके आमस्त्रणपर बुलाया गया था जिसकी
सानन्द समाप्ति १-१०-१९६३ के दिन हुई थो । प्रसन्नता है कि इसे सभो विद्वानोंने साभार स्वोकार कर
लिया और यथासम्भव अधिकतर प्रमुख विद्वानु प्रसन्नता पूर्वक सम्मेलनमें सम्मिलित भी हुए । यद्यपि यह
सम्मेलन २० ता० से प्रारम्भ होना था, परन्तु प्रथम दिन होनके कारण उसका प्रारम्भ २१ ता० से हो
सका जो १-१०-१९६३ तक निर्वाधगतिस चलता रहा । सम्मेलन की प्री कार्यवाही लिखितरूपमें होती थी,
इससे किसीको किसी प्रकार शिकायत करनेका सवसर हो नहों आया। इस सम्मेलनको समस्त कार्यवाही पूज्य
श्री १०८ आचाय शिवसागरजो महाराज और उनके संघके सानिध्यमें होनके कारण बड़ो शान्ति बनों रहो ।
इसका विशेष स्पष्टोकरण सम्पादकोय बक््तब्यम पढ़नेको मिलेगा ।
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