सांस्कृतिक भारत | Sanskritik Bharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृति का स्वरूप ९७ न दूसरी जगह रहने वाले मनुष्यों का दल ही भगाया जा सकता था, जो जब-तब श्रादमियों के एक-दूसरे गिरोह पर उसकी फलों भरी, दिकार भरी ज़मीन को छीनने के लिये हमला करता था । इन श्रनेक प्रकार के कार्यों के लिये, जिनमे अ्रकेले श्रादमी की ताक़त कुछ काम न कर पाती थी, ग्रनेक लोगों के, एक साथ बसने वाले समूचे गिरोह के एक मन होकर काम करने की श्रावश्यकता पड़ती थी । वही श्रादमियों का सामूहिक या दलगत प्रयास था, जो बड़े महत्त्व का था । श्रौर जब एक दल के भ्रादमी एक साथ रहने, एक साथ काम करने लगे, एक साथ श्रपनी रक्षा करने लगे, तभी उनमें एक-दूसरे के प्रति सद्भाव हो जाया करता था । श्रौर उन सब में परस्पर श्राचरण के कुछ नियम श्रपने श्राप बन जाया करते थे, जिनकी वह श्रादि मानव कभी श्रवहेलना नहीं करता था । इस प्रकार मनुष्य का यह सामूहिक रूप बहुत प्राचीन है, उतना ही प्राचीन जितना उसका वर्नैला जीवन । क्योकि श्राखिर मचुप्य एक प्रकार के समाज में ही पैदा होता है, चाहे वह समाज माता-पिता नाम के दो व्यक्तियों तक ही सीमित क्यों न हो । श्रौर पैदा होने की स्थिति में वह बिल्कुल बेबस होता है, एक भ्ररसे तक, उसे दूसरे जानवरों के विपरीत, श्रौरों पर निर्भर करना पड़ता है । इससे भी, एक मात्रा में दूगरे का मुख देखने के कारण, उसमें प्रत्युपफार की कुछ न कुछ भावना, प्रारम्भ से ही काम करने लगती है । यह सारी भावनाएं, भ्रावश्यकताएँ ्रौर दल के भीतर जो कुछ निश्चित नियम अनायास बन जाते हैं, उनके प्रति ईमानदारी, सब मिल- कर उस स्थिति का निर्माण करते हैं, जो सभा और सभा-सम्बन्धी श्राचरण का पुवरूप है । इस प्रकार सभा से सभ्य बनता है श्रौर सभ्य की उचित श्राचरित मनोवृत्ति से सभ्यता । यह तो कथा सभ्यता की हुई, जिसका सम्बन्ध अ्रत्यन्त प्राचीन-काल के भ्रादिम मानव से किया गया है । यानी कि बनेले जीवन से गाँव या गिरोह के. सामूहिक जीवन की श्रोर बढ़ना सभ्यता का विकास है पर




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