सांस्कृतिक भारत | Sanskritik Bharat
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संस्कृति का स्वरूप ९७
न दूसरी जगह रहने वाले मनुष्यों का दल ही भगाया जा सकता था, जो
जब-तब श्रादमियों के एक-दूसरे गिरोह पर उसकी फलों भरी, दिकार
भरी ज़मीन को छीनने के लिये हमला करता था । इन श्रनेक प्रकार के
कार्यों के लिये, जिनमे अ्रकेले श्रादमी की ताक़त कुछ काम न कर पाती थी,
ग्रनेक लोगों के, एक साथ बसने वाले समूचे गिरोह के एक मन होकर
काम करने की श्रावश्यकता पड़ती थी । वही श्रादमियों का सामूहिक या
दलगत प्रयास था, जो बड़े महत्त्व का था । श्रौर जब एक दल के भ्रादमी
एक साथ रहने, एक साथ काम करने लगे, एक साथ श्रपनी रक्षा करने
लगे, तभी उनमें एक-दूसरे के प्रति सद्भाव हो जाया करता था । श्रौर
उन सब में परस्पर श्राचरण के कुछ नियम श्रपने श्राप बन जाया करते
थे, जिनकी वह श्रादि मानव कभी श्रवहेलना नहीं करता था । इस प्रकार
मनुष्य का यह सामूहिक रूप बहुत प्राचीन है, उतना ही प्राचीन जितना
उसका वर्नैला जीवन । क्योकि श्राखिर मचुप्य एक प्रकार के समाज में
ही पैदा होता है, चाहे वह समाज माता-पिता नाम के दो व्यक्तियों तक
ही सीमित क्यों न हो । श्रौर पैदा होने की स्थिति में वह बिल्कुल बेबस
होता है, एक भ्ररसे तक, उसे दूसरे जानवरों के विपरीत, श्रौरों पर
निर्भर करना पड़ता है । इससे भी, एक मात्रा में दूगरे का मुख देखने के
कारण, उसमें प्रत्युपफार की कुछ न कुछ भावना, प्रारम्भ से ही काम
करने लगती है ।
यह सारी भावनाएं, भ्रावश्यकताएँ ्रौर दल के भीतर जो कुछ
निश्चित नियम अनायास बन जाते हैं, उनके प्रति ईमानदारी, सब मिल-
कर उस स्थिति का निर्माण करते हैं, जो सभा और सभा-सम्बन्धी
श्राचरण का पुवरूप है । इस प्रकार सभा से सभ्य बनता है श्रौर सभ्य
की उचित श्राचरित मनोवृत्ति से सभ्यता ।
यह तो कथा सभ्यता की हुई, जिसका सम्बन्ध अ्रत्यन्त प्राचीन-काल
के भ्रादिम मानव से किया गया है । यानी कि बनेले जीवन से गाँव या
गिरोह के. सामूहिक जीवन की श्रोर बढ़ना सभ्यता का विकास है पर
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