भारत में आर्थिक नियोजन | Bharat Me Arthik Niyojan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३१ द्शु की भावात्मक एकता और सुनियोजिते श्रर्थ-व्यवस्था अर ८००७४ गत कुछ समय पे हुमारे नेतागणा आवात्मक एकता पर भषिक बतत देने लगे हैं। भावारमक एकता का रपष्ट श्राशम महू है कि हम सब जोग यह अजुभव करने लगें कि हमारा अन्तिम लक्य एक ही है शरीर वह है सम्पूर्ण देश को उम्नति करना | इस दृष्टि से हम लोगो की मस्तिष्क की संकीर्णता से टूर रहेगी चाहिए एवं छोटे-मोटे मतरिदों को मुलाकर सामान्य बातीं के सम्बन्ध मे एक मत हो जाना चाहिए । किसी भी राष्ट्र की चहुमुखी प्रगति के लिए भावार्मक एकता नितान्त दयक है सभी लोग स्वीकार करते है। बे यह भी स्वीकार करते हैं कि यदि राष्ट्र बढता है तो इसी से व्यक्ति को भी उश्नति होती है उसकी मानिमर्यादा बढती है शरीर उसकी श्रा्थिक दा में सुधार होता हू । यहाँ यह स्वाभाविक उठता है कि यदि ऐसा है तो फिर राष्ट्र की के विरोध में घातक तत्व समय-मय पर अपना सिर वयो उठाते है ? कभी सापा के प्रदन को लेकर भगड़े होते है तो कभी राज्य के हिंतो का प्रश्द लेकर कभी धर्म पर सम्प्रदाय को आड़ में ढप फसाया जाता है तो कभी जावि-पाँति के संकुवित विचारों को उभार कर समाज हें कूद फेलाई जाती है । मावात्मक एकता क्यों कर सम हो ?--यदि कोई भी राष्ट्र सुनियोणिते सर्भ-म्यवस्था के अन्तर्गत प्रगति करना चाहूता है तो बिना भावात्मक एकता के यह सम्भव नहीं है । राष्ट्र की एकता दो सुददे बनाने के लिए महू बहु जरूरी है कि देश मे व्याप्त विघटनकारी दक्तियों का मूल कारण खोजा जाए भौर उसे नड़सूतत से नध्ट करने के उपायों पर विचार किया जाए । राष्ट्र की भावात्मक एकता को मयबूत बनाने के लिए कुछ लोग देश की वर्तमान प्र्थ-यदस्था तथा बदले हुए संमर्म की मॉँग रद




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