वीतराग - विज्ञान भाग ३ | Vitrag Vigyan Bhag 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'वीतरागविज्ञान भाग-३ _] 1 ५ सोच तो सद्दी कि तेरेको जो दिख रद्दा है चद्द सचमुचमें पानीं नहीं दे परन्चु तेरी कल्पना ही है, दृष्टिप्रम है। परन्तु संगजलके पीछे वेगसे दौडनेवाले भ्रगको इतना विचार करनेका अवकाद ही कहां है ? उसी प्रकार स्रगजल जैसे विपयोंकी और झपापात करने- वाले प्राणियोंको इतना विचार भी नद्दीं आता कि अरे ! अनादिकालसे छाुभ एवं झुभ विषयोंके पीछे दौड़ते हुए भी मुझे जरासा मीं सुख क्यों न मिला ? सुखकी झीतल हवा मी क्यों न आयी ?-कढासे वे ? उसमें सुख हो तब आये न ? बिषयोंकि वेद्नमें तो गरम रेत जैसी लाकल्ता ही है. उसमें जो सुख दिखता है बद्द तो सज्ञानीकी चृष्टिका आम ही है । बाह्ममे अनुकूलताका होना सो सुख, और प्रतिकूलनाका होना सो दुख-ऐसा नहीं है, घनमवान सुखी और निर्धन दु खी-ऐसा मी नहीं है, निरोगतामें सुख और रोगसें दुख-ऐसा मी नदीं दे । जाददरकी द्रिद्रतामे न डुख है और न ल.खों-अरबों रुपयेके टेरमें सुख है । उन दोनों ओरके झुकाचमे आकऊुलतासे जीव दुखी है। नवेतन्यप्रभु आत्मा दी एक ऐसा है कि जिसमे देखते दी सुख दो । आत्मा दी सुखका भंडार है. परन्ठु उसकी पहचान नहीं है। सुख तो आत्माका अपना निजवैभव है, जड़बेभवमे बह नहीं होता । भाई । ठु्हें सुखी टोन हे न -- दो, तो सुख कैसा द्दो ता है और उसकी भ्राप्ति कैसे होती हे यह पहचानना चाहिए । आत्मा- का जो सइज स्वभाव है उसके चीचसे यदि रागकी आड न लगावे, शो तेरा आत्मा स्वयसेत्र निराइल सुखरूपसे अज्ुभवम आयेगा है




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