श्रावक का अस्तेय - व्रत | Shrawak Ka Astey Vrat
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
70
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११ विपयारम्भ
उसने, पश्चात्ताप किया श्र इंसा को छोड़ने के साथ ही चोर को
भी छोड़ दिया ।
मतलब यह, कि जय तक कोई स्वयं चोरी करता है, तब तक
वद्द दूसरे को दण्ड कैसे दे सकता है ? दूसरे से, किसी बात
का पालन करवाने के लिये, पहले स्वयं उसका पालन करना
्त्यावश्यक है । छाप स्वयं थी चोरी करे, और दूसरे को चोरी
के ही लिए दरड दें, यह न्याय नहीं कहला सकता ।
जीवधारियों की चोरी भी, द्रन्य की चोरी में शामिल है ।
किसी जीवधघारी पर॒ उसकी स्वयं की, या वह बेसमक है, तो
उसके अभिभावक-स्वामी ादि की, श्ाज्ञा के बिना अपना अधि-
कार करना, उसके द्वारा किसी रूप में लाभ उठाना, चोरी है ।
जैसे पशु, पक्षी, स््री, बालक, आदि को विना उनके स्वामी की
आज्ञा के झपने 'झधिकार में करना, उन्हे बेंचकर या दूसरी
तरदद उनसे फायरा उठाना, चोरी है ।
द्रव्यनवोरो के ऐसे ही श्ौर भी कई माग है, जिनका वर्णन
यहां विस्तार भय से नहीं किया जाता है ।
किसी के घर, बाग, खेत, मागे,; गाँव, देश या राज्य पर
बिना उसकी 'झान्ना के अधिकार करना, अपने काम में लेना या'
किसी प्रकार का फायदा उठाना, क्षेत्र की 'वोरी है । झपने वैभव
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