श्वेताम्बर तेरह-पन्थ | Shwetambar Terah-Panth

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Shwetambar Terah-Panth by शंकरप्रसाद दीक्षित - Shankarprasad Dikshit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७. ) रक्ता के छिए अनेकों स्थावर प्राणियों की दिंसा क्यों की' जावे !? जेसे-किखी को भोजन दिया या पानी पिलाया, तब रक्ा तो एक , अष की हुई, परन्तु इस कायं मे श्रसंख्य भर अनन्त स्थावर नीवों का संहार दो जाता है, वह पाप उख जीव-रक्ता करने वाले को -होणा | इतना ही नीं किन्तु जो जीव बचा है, उसके जीवन भर खाते पीने भथवा न्य कामों में जो दिंसा न्रस-त्थावर जीवों की होगी, बह र्दा भीखी को छगेगो, जिसने उसको मरने से बचाया दे | दुसरा सिद्धान्त यदद दै कि--जो जीव मरता है अथवा.कट्ट पारहाहै बह अपने पूर्व संचित कर्मा का फछ भोग रहा दै । उसको भरने से बचाना अथवा उसको सहायता करके कष्ट-मुक्त करना, अपने खुद पर का वदद कम-ऋण 'चुकाने से उसको, वंचित रखना है, -जिसे बह मरनेया कष्ट सहने के रूप मँ भोगकर युका रा था। . तीसरी मान्यता यह है कि--पाघु के सिवाय संसार के समस्त श्राणी कुपात्र हैं । कछुपात्र को बचाना, कुपात्र को दान देना, -कुपात्र की सेबा-सुश्नघा करना, सब पाप हैं । इन्हीं दढीछों ( मान्यताभओं ) के आधार पर तेरद-पन्थी -छोग दया 'और दान को पाप बताते हैं; -और इन्दीं सिद्धान्तों की डढ़ता के ढिए वे कहते हैं कि--




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