इष्टोपदेश | Ishtopadesh

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Ishtopadesh by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छ रायचन्द्जैनशाख्रमाठायाम [ ोक-- यावस्पुखेन तिष्ठति आतपर्थितश्र दुःखेन तिट्ठति तथा अतादिक्ञतानि स आत्मा जीव: सुद्व्यादयों मुक्तिहेतयों यावस्संपयते तावत्स्वरगांदिपदेघु सुखेन तिष्ठति अन्यश्व नस्कादिपदेषु दुःखेनेति। अथ बिनेयः पुनराशझ्ुते । एवमात्मनि मक्तिरयुक्ता र्यादिति मगवन्नेव॑ चिरभाविमोझसुखस्य ब्रतसाध्ये संसारसुखे सिद्धे सत्यात्मनि चिदूपे भक्तिमाविवियुदध आन्तरोडनुरागों अयुक्ता अनुपपन्ना स्याद्धवेत्‌ तत्स!ध्यस्य मो क्षसुखस्य सुद्रव्या दिस पत्य पेक्षया दुरव तित्बादवान्तर्प्राप्यस्य च स्वगांदिसुखस्य श्रतेकसाध्यत्वाद्‌ । अत्राप्याचार्य: समाघतते--तदपि नेति । न केवल ब्तादीनामानथेक्य न भवेतु | किं तईिं, तदप्यात्ममक्तचनुपे+ततिप्रकाशनमपि त्वया क्रियमाणं न साधु स्यादित्यय: । यतः--॥ ३ ॥ अर्थ--ब्रतोंके द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अग्रतोंके द्वारा नरक-पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है । जैसे छाया और श्रूपमें बैठनेवाठॉमें अन्तर पाया जाता है, वैसे ही त्रत और अब्रतके आचरण व पालन करनेवाठोंमें फाके पाया जाता है । विद्यादा्थ--अपने कार्यके कशसे नगरके भीतर गये हुए तथा वहाँसे वापिस आनेवाले अपने तीसरे साथीकी मागेमें प्रतीक्षा करनेवाठे जिनमें ते एक तो छायामें बैठा हुआ है, और दूसरा धूपमें बैठा हुवा है- दो व्यक्तियोंमें जैसे बड़ा भारी अन्तर है; अर्थात छायामें वैठनेवाला तीसरे पुरुषके आनेतक सुखसे बैठा रहता है, और ध्ूपमें बैठनेवाठा दुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है । उसी तरह जबतक जीवको मुक्तिके कारणभ्रृत अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिक प्राप्न होते हैं, तबतक ब्रतादिकोॉंका आचरण करनेवाठा स्वर्गादिक स्थानेंमें आनन्दके साथ रहता है । दूसरा ब्रतादिकोंको न पाठता हुआ असंयमी पुरुष नरकादिक स्थानोंमें दुःख भोगता रहता है । अतः ब्रतादिकोंका परिपाठन निरथैक नहीं; अपि तु सार्थक है । दोद्दा-मित्र राद देखत खड़े, इक छाया इक घूप । बतपालनसे देवपर, अब्रत दुर्गति कृप ० ३ ॥ कांका--यहाँपर शिष्य पुनः प्रश्न करता हुआ कटता है--“” यदि उपरिलिखित कयनकों मान्य किया जायगा, तो चिदूरूप आत्मामें भक्ति भाव ( विशुद्ध अंतरंग अनुराग ) करना अयुक्त ही हो जायगा ? कारण कि आत्मानुरागसे होनेवाठा मॉक्षरूपी सुख तो योग्य द्रव्य क्षेत्र काठ, भावादिरूप सम्पत्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा रखनेके कारण बहुत दर हो जायगा और बीचमें ही मिठने- वाठा स्वगांदि-सुख ब्रतोंके साहाय्यसे मिल जायगा । तब फिर आत्मानुराग कानेसे क्या ठाभ ? अर्थात्‌ सुखा्थी साधारण जन आत्मानुरागकी ओर आकर्षित न होते हुए श्रतादिकोंकी ओर है अधिक झुक जाएँगे । समाधान--शंकाका निराकरण करते हुए आचार्य बोले, “ ब्रतादिकॉंका आचरण करना निर्स्थक नददी है। ” (अर्थात्‌ साथक है ) इतनी दी बात नहीं किन्तु आत्म-भक्तिको अथुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है । इसी कथनकी पुष्टि करते हुए आगे इलोक लिखते हैं:--ञ ३ ॥ १ मध्यकम्पस्य । र अयुक्ति! ।




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