मासिक पत्रिका २ | Maasik Patrika 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
211 MB
कुल पष्ठ :
661
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घ सुधा
दि सयसवामाामाकवन पद दस पी लिन १ पलपल फनी व
रहे हैं । भला तुम्हीं बताओ, यदद घोती, जो पहने बैठी
है, सैली है ?'”
सिश्रजी दबी ज़बान से बोले--' 'ैली तो ज़रूर
है ,” पार्चतीदेवी चिबुक पर उँगली रखकर बोलीं-*
“तब तो हो चुका । जब तुम भी मैली कहने लगे,
तो उसके दिमाग़ केसे ठिकाने रह सकते हैं । मुझे
क्या करना है, तुम उसके लिये बनारसी साड़ी संग आं,
जिसे इर समय पहले बैठी रहा करें । घर-गिरिस्ती में
सेना-कचैला भी पहनना पढ़ता है । फिर जदान-जहान
है और कूँश्रारी है, सिंगार किए फिरेगी, तो लोग क्या
कहेंगे ? मैं तो पूँक'ुँककर पैर घरती हूँ कि लोग यह
नकहें कि सौतेखी मा है, इससे लड़की की कोई
देख-भाज नहीं होती, मनमानी करती रहती है ।”
सिध्नही नख्र होकर बोले-- तो क्या बस 'घोती
दीकी बात है ?””
“सौर नहीं तो मैंने कौन बड़ा पाप किया है £
सुकपे बोली--'संदूक से धोती निकाल दो ।' मैंने
कहा--'झभी तो यह 'घोती ऐसी कुछ बुरी नहीं है, ऐसा
दी है, तो कज्ञ बदल सेना ।' बोली--'नहीं; में तो यह
घोती एक छिन भी नहीं पहनूंगी ।” यह बात सुझे
बुरी लगी । किसी समय चीज है किसी समय नहीं ;
इसमें जिद करने की कौनन्सी बात थी £ मेरे
मुँह से निकल गया कि आज तो मैं नहीं निकार्लूगी,
बस इतनो-सी बात है। इस पर दो घंटे से बेढी
झाँसू बहा रही है । घर में ऐसे दो-्चार बल्चे हों, तो
कैसे नि्मे ? अब तुम झ्ाए हो, जेसा समक पढ़े,
करो । मैं तो इस लड़की से हार गई ।”'
सिश्नजी की समझ में भी पत्नी की बात झा राई ।
““दोती नहीं दी, तो कौन बढ़ा भारी गुनाह किया £
पक दिन सैंज्नी ही पदन लेती । और, कुँआारी लड़की
को तो मेली-कुचैली दी रहना चाहिए ।” यह सोचते
हुए बाहर झाए, श्औौर रेवती को एक ज़ोर को डॉट
बताते हुए बोले-' एक दिन मैली दी पहन लेगी,
तो क्या घिप् लायगी, बढ़ी रईसज्ञादी बनी है ।””
पिता की ढाँट के सामने रेवती अधिक न ठहर सकी,
बी बी भा नही लि
१ पं नीच लत भर नच्न्टी भन्य बिन कीं लीं फनी चना
[ वष दे, खंड र, संख्या ?
न्भ.मी चिप थी पारी मेक
चुपचाप उठकर झपनी दादी के कमरे में चली गई ।
समिधजी बड़बड़ाते हुए शपने कमरे में लो थाए ।
उसी समय दूसरे कमरे से माता का चौण स्वर सुनाई
पढ़ा- उन्हें पुकार रही थीं । पावतीदेवी बोलीं -- ः
'ञाझ्नो, बुला रही हैं । मुक्से खाद खुकी हैं, अब
तुम्हारी बारी है ।” मिश्री यदद कहते हुए
“इन्होंने तो उसे बिगाड़ ही रक्खा है ।” माता के
पास राए ।
(२)
माता के कमरे में पहुँचे, तो. देखा कि रेवती दादी
की चारपाई से सिड़ी हुई बैठी सिसकियाँ ले रही दे ।
मिश्नजी की माता सिश्रजी के झाने की आाइट पाकर
उछ बैठीं और बोलीं--''वाह बेटा ! तुमने भला न्याय
किया । उस छुत्तीसी को तो कुछ कहा नहीं, उल्ादटे
इसी को ढाँटा !” मिश्रजी बोले--“'तो ऐसी कौन
बढ़ी मैक्ी घोती है । तुम्हें कुछ सूक तो पढ़ता नहीं,
तुम नाइक दज़ल देती हो ।”'
“प्सेरे आाँखें नहीं हैं, नाक तो हे-- कि नाक को
भी आग लग गई ? जरा नाक लगा के देखो
तो, केसी बदबू झा रही हैं । भरे, ऐसी 'घोती
तो गरीब-सेशरीब भी नहीं एन. सकता ।
और न कुछ होगा, तो पैसे का साइन लगाकर
थो लेगा ।”'
''घर-यूहस्थी में सब चलता है ।” सिश्रजी ने अंतः-
करण से विद्रोह करके कहा । मे
'“़ूब पढ़ रदे दो बेटा, जैसा मालकिन ने पढ़ाया
हैं, वैसा दी पढ़ रहे हो । घर-गिरिस्ती में सब चखता
है, तो वह भी एक दिन ऐसी ही पहनकर देखे ।
अपना तो झआाठों पदर पतुरिया की तरह सजी रहती
है--दिन-भर में चार-चार घोती बदलती है, 'और
दूसरों को घर-गिरिस्ती सिखाती है । वाद भ् वाद !
इस घर-गिरिस्त थोड़े दी रहे हैं--यह हमें घर-गिरिस्ती
सिखाने आई है । कया कहूँ, भाँखों से ज्ञाचार हूँ,
नहीं तो बताती कि घर-गिरिस्ती कैसी होती है ।””
_ “तुम तो अम्मा, स़ासय़ाँ बात का बतंगढ़ बनाती
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