शिक्षा का विकास [भाग 1] | Shiksha Ka Vikas [Bhag 1]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ष करनेकी जरूरत पैदा हुआी। जिस नये जीवनके अनुरूप दिक्षा देनी हो हो लुसमें दारीर-श्रम और मुद्योगका स्वान होना चाहिये, यह सिद्धान्त तय हुआ और साक्षरी विषयों* के अलावा गुद्योग सिखाना आरंभ किया . गया । परन्तु सत्याग्रहकी लड़ाठियां और दूसरे कआओी विक्लेप वहां लायें, जिसलिमें गांधीजी शिक्षाके प्रदनमें अधिक वारीकीसे नहीं भुरर सके । हिन्डुस्तानमें आनेके वाद सावरमती ठाश्रममें गांधीजीने अपने दिक्षाके प्रयोग अधिक व्यवस्थित रूपमें और वड़े पैमानें पर आरंभ किये ! अुनमें हम सब दारीक हुआ । गांघीजी स्वयं भी मुन्में अच्छी तरह भाग लेनेकी किच्छा रखते थे। परंतु मुन पर मेकके वाद लेक जैसे काम आते गये कि प्रत्यक्ष दिक्षणका काम वे कर ही न सके। मुन्होंने जितनी आशा रखी थी सुतना समय वे हमें भी नहीं दे सके। प्रवाससे आश्रममें आते तव हमारे और चिद्यार्थियोंके साथ चर्चा करते थे । क्या चल रहा है, यह जान लेते थे और कोओ सूचनाओं देने लायक होती तो दे देते थे । परंतु मुद्योगकी कक्षानें अलग गौर साक्षरी विपयोंकी कक्षाओं अलग, लिन दोनोंके वीच कोओी मेल या संबंध नहीं --शिक्षाका यही प्रकार चल रहा था । मुद्योग-शिक्षणका काम आाश्रमके कुछ भावी श्री मगनलाल- भागी गांधीकी देखरेखमें करते थे । साक्षरी विपयोंकी कक्षाओं हम शिक्षक कहलानेवाले लोग चलाते थे। परंतु मुद्योगके साथ साक्षरी विपयोंका अनुवंघ करनेकी वात हममें से किसीको नहीं सुझी थी । शालाको शुरू हुअ अेक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधीजीको लगा कि शालाके शिक्षकोंको जब तक जुद्योग नहीं माता, तव तक वे राष्ट्रीय शिक्षक नहीं कहला सकते 1 जिसमे सुन्होंने तय किया कि हम नये विद्यार्थी न लें और कम-से-कम * ' ओेकेडेमिक सब्जेक्ट्स ' के लिखे 'साक्षरी विपय' दाल्द मैंने वनाया है। माजकरू सुनके किये ' वौद्धिक विपय' दाव्द काममें लिया जाता हैं। परंतु वह ठीक नहीं है। अुसमें यह गत मान्यता है कि किताबी ज्ञानवाले विपय ही वौद्धिक होते हैं बौर अुचोगका तथा जीवनके लिजें झुपयोगी अन्य प्रवृत्तियोंका वुद्धिकि साथ कोओी संबंध नहीं होता ! चस्तुततः सुद्योगमें और दूसरी प्रवृत्तियोंमें चुद्धिका ज्यादा विकास होता है । कितावी विपयोंमें तो रटामीकी तरफ चले जानेका भय रहता है। शि. वि-र




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