जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा | Jayapur Khaniya Tatvachachra

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Jayapur Khaniya Tatvachachra by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादवककी ओरसे १, सेदविशानका मादात्स्य एक हो जीवकी विविध अवस्थाओके सुचक गुणस्थान चौदह हैं । नियम यह है कि सर्व प्रथम अनादि कालसे यह जोव मिध्यात्व गुणस्थानमें स्थित हैं । मिध्यात्व गुणत्थानका मुख्य कार्य अपने आत्मस्वरूपको भूल क्र परमे निजबुद्धि कराना है । इसकी अदेवमें देवबुद्धि, भगुरुमें गुरुबुद्धि भर अठसवमे तस्वनुद्ध निममसे होती है । कषायको मन्दतावश कद।/चित्‌ ऐसा जीव अणुब्रतो और महांब्रतोका भी पालन करता है। कदाचित्‌ क्षयोपशमकों विशेषता व ग्यारह अग और नो पूर्वोंका पाठी भी हो जाता है, फिर भी मिथ्यादृष्टि बना रहता हैं । विषय-क्षायकी मन्दता या क्षयोपशमकी बिशेषताका होना अन्य बात हे और आत्मकाय में सावधान होकर भेदविज्ञानके बसे सम्यग्दष्टि बन मोक्षके छिए उद्यम- झील हॉना अन्य बात है । इसो तथ्यकों ध्यानमे रख कर भगवान्‌ कुल्द कुन्ददेवने दर्शनप्राभृतमे धर्मका मूल सम्यगदर्यनकों कहा है--दसणमूलों धम्मो । सतत जागरूक रहते हुए परमागमका अम्यास करना, गणुब्त-महाबतोका पालन करना तथा देव, गुरु, शास्त्रकों श्रद्धा भक्ति करना इसको जहाँ बाह्य कर्तव्य रूपमे परमागमम स्वीकृति है वहाँ उसी परनागमम अन्तरग कर्तव्यक रूपमे भेदविज्ञानकी कलाकों सम्पादित करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ बतलाया गया हूँ । आचार्य अमृतचन्द्रदेवने इसी तथ्यकों हृदयंगम कर समयसार- कलशमे यह वचन कहा है कि माजतक जितन भो सिद्ध हुए वे एकमात्र भेदविशानके बलसे ही सिद्ध हुए मोर जो ससारो बने हुए है वे भेदविज्ञानको नहीं प्राप्त करनेके कारण ही संसारी बने हुए है । भेदावज्ञानको महिमा सर्वोर्पार है । २. प्राचीन इतिदास हमारे बुंदेलखण्डको यह परिपाटी हैँ कि प्रत्येक गाँव या नगरके प्रत्येक जिनालयमें राश्रिवचनिकामें दो शास्त्र अवइ्य रखे जाते हूँ। उसमे भो प्रथम शास्त्र तत्वज्ञानसे सम्बन्ध रखनेदाला होता हैं। इसका सर्वप्रथम वाचन किया जाता हैं. और दूसरा शास्त्र पुण्य पुरुषोकी जोवन चर्याका परिचायक होता है । इसका अन्तमें बाचन किया जाता है । प्रथम शास्त्रके रूपप्ें कभी-कभी चरणानुयागसम्बन्धी शास्त्रका भी बाचन होता है. और सबके अन्तमें शास्त्रसभाम उपस्थिति महानुभावोमेंस कोई एक महाशय भजन बोलते हैं, जो अध्यात्मरससे भत-प्रोत होता है । बचपन तो मैं इसके महत्त्वकों नहीं जानता था, किन्तु अब इस पद्धतिकी विशेषता समझमें आने लगी है । यह संसारी प्राणी तत्वज्ञानका प्रयोजन समझकर भात्मकार्यमे सावधान बने यह इस पद्धतिका मुख्य प्रयोजन हैं । यह पद्धति मेरे ख्पालसे पूरे भारतवर्षमे प्रचलित होनेका भो यही कारण है । इतना अवश्य है कि किसी विशिष्ट ज्ञानोके आ जानेपर छशास्त्रगोष्ठीमे तत्त्वज्ञानकी प्ररूपणा पर सदासे विशेष बल दिया जाता रहा है, जो अबाधितरूपसे माज तक प्रचलित है। स्वय जब कोई विद्वान किसी नगरमे जाते है तब वे तत्त्वज्ञानके आालम्बनसे ही शास्त्रप्ररूपणा करते है । अन्तमें प्रचयमानुयोग- का तो मगलाचरण सात्र कर दिया जाता है । वहाँ उपस्थित श्लोताजन भी यही चाहते हूं कि पण्डितजी कुछ ऐसे तथ्योका निर्देश करें जिन्हें समझ कर हम आात्मकल्याणमे लग सके ।




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