वृन्दावनविलास | Vrindavanavilas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
182
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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आरामें आप प्रायः आया जाया करते थे । वद्दाके बाबू परमेष्टीदास- |
थे: जीसे आपका विशेष घरमेह था । उन्हें कवितासे अतिशय प्रेम था 1
है; अध्यात्मशाल्रोंके श्ता थी आप खूब थे । इनके विषयमें कंविवरने प्रवच- 1
नसारमें लिखा है,--
संवत चौरानूमें सुआाय । भारेतें परमेष्ठीसहाय ॥
अध्यातमरंग पगे प्रवीन। कवितामें सन निशिद्वस छीन ॥
सजनता गुन गरुवे गंभीर । कुछ अग्रवारू सुविशार धीर ॥
से सम उपगारी अरथम पर्म । सांचे सरघानी चिगत भर्स ॥
आराके बाबू सीमघरदासजीसे भी आपकी धमेच्चा हुआ करती थी ।
सबत् १८६० में जब कविवर काशीमें आये थे, उस समय वहा जै-
नघर्मके ज्ञाताओकी अच्छी शैली थी । आइतरामजी, छुखलालजी सेठी,
चकसूऊाठजी, काशीनाथजी, नन्दूंजी, अनन्तरामजी, मूलचन्द्जी, गोकुछ-
'न्दजी, उदयराजजी, शुलावचन्दजी, मैरव्रसादजी अग्रवाल, आदि
अनेक सब्नन घमोत्माओंके नाम कविवरने अपने अ्रन्थोंकी प्रदखिमें दिये
हैं । इन सबकी सतसगतिसे ही कविवरको जैनधर्मसे प्रीति उत्पन्न हुई थी
और इन्हींकी प्रेरणासे श्रन्थोके रचनेका उन्होंने श्रारम किया था । बाबू
सुखलाठ्जीको तीस चौवीसीपाठकी श्रशखिमें कविवरने अपना शुद्ध व-
2
न्टरद्ीनटननटीनदरिीनटीनीनटीनटद-देनदवदरीनदनददेदीनत्रस-उददद- टेक नेदनटददेनदडनवेद्रे-द--दनर
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तलाया है;-- ्
*'काशीजीसं काशीनाथ सूरूचन्द नतराम, पं
नन्हूंजी शुकाबचन्द् प्रेरक भ्रमानियों । भर
तहां घर्मचन्दुचन्द शिष्य खुखलालजी को, दी
इंन्दावन अम्रवाठ गोठगोती वानियों ॥” हु इ
बाबू उदयराजजी छमेचूसे कविवरकी अतिशय श्रीति थी । अपने अ- ्
न्थोंमिं उन्दोंने उनका वड़े आदरसे स्मरण किया है.”-- के
“सीताराम पुनीत तात, जसु माह हुलासो । हे
ज्ञाति छमेचू जैनधर्मकुछ, विदित प्रकासो ॥ पी
तसु कुर-कमक-दिनिंद, आत मम उद्यराज घर । प
अध्यातमरस छके, भक्त जिनवरके दिढ़तर ॥”
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कक जा: की. कि की जा जे आदर:
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