वृन्दावनविलास | Vrindavanavilas

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Vrindavanavilas by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुहर स लि कि सर वी खाक ति सर पी जीवनचरित्र शण मै न वि दि विवि वि वि । आरामें आप प्रायः आया जाया करते थे । वद्दाके बाबू परमेष्टीदास- | थे: जीसे आपका विशेष घरमेह था । उन्हें कवितासे अतिशय प्रेम था 1 है; अध्यात्मशाल्रोंके श्ता थी आप खूब थे । इनके विषयमें कंविवरने प्रवच- 1 नसारमें लिखा है,-- संवत चौरानूमें सुआाय । भारेतें परमेष्ठीसहाय ॥ अध्यातमरंग पगे प्रवीन। कवितामें सन निशिद्वस छीन ॥ सजनता गुन गरुवे गंभीर । कुछ अग्रवारू सुविशार धीर ॥ से सम उपगारी अरथम पर्म । सांचे सरघानी चिगत भर्स ॥ आराके बाबू सीमघरदासजीसे भी आपकी धमेच्चा हुआ करती थी । सबत्‌ १८६० में जब कविवर काशीमें आये थे, उस समय वहा जै- नघर्मके ज्ञाताओकी अच्छी शैली थी । आइतरामजी, छुखलालजी सेठी, चकसूऊाठजी, काशीनाथजी, नन्दूंजी, अनन्तरामजी, मूलचन्द्जी, गोकुछ- 'न्दजी, उदयराजजी, शुलावचन्दजी, मैरव्रसादजी अग्रवाल, आदि अनेक सब्नन घमोत्माओंके नाम कविवरने अपने अ्रन्थोंकी प्रदखिमें दिये हैं । इन सबकी सतसगतिसे ही कविवरको जैनधर्मसे प्रीति उत्पन्न हुई थी और इन्हींकी प्रेरणासे श्रन्थोके रचनेका उन्होंने श्रारम किया था । बाबू सुखलाठ्जीको तीस चौवीसीपाठकी श्रशखिमें कविवरने अपना शुद्ध व- 2 न्टरद्ीनटननटीनदरिीनटीनीनटीनटद-देनदवदरीनदनददेदीनत्रस-उददद- टेक नेदनटददेनदडनवेद्रे-द--दनर कप तलाया है;-- ् *'काशीजीसं काशीनाथ सूरूचन्द नतराम, पं नन्हूंजी शुकाबचन्द्‌ प्रेरक भ्रमानियों । भर तहां घर्मचन्दुचन्द शिष्य खुखलालजी को, दी इंन्दावन अम्रवाठ गोठगोती वानियों ॥” हु इ बाबू उदयराजजी छमेचूसे कविवरकी अतिशय श्रीति थी । अपने अ- ् न्थोंमिं उन्दोंने उनका वड़े आदरसे स्मरण किया है.”-- के “सीताराम पुनीत तात, जसु माह हुलासो । हे ज्ञाति छमेचू जैनधर्मकुछ, विदित प्रकासो ॥ पी तसु कुर-कमक-दिनिंद, आत मम उद्यराज घर । प अध्यातमरस छके, भक्त जिनवरके दिढ़तर ॥” है डे है कक जा: की. कि की जा जे आदर:




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