आकाशवाणी काव्य संगम | Akashwani Kavya Sangam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कहीं' **** साँवले उजले हंसों की दुहरी सी पाँत उड़ चली हो र्यों फड़का पंख । कहीं पर.. उजले चंदन से चोती घरती पर जसे... फूल. पत्तियों की नककाशी की जाती हो इयाम श्रगर से । श्रौर कहीं पर... किसी भाड के भुरमुट से छन कर श्राती. दूुधिया चांदनी पर पड़ती हो परछाई ज्यों तने डाल टहनी फ्ुनगी की । श्रौर कहीं पर घूनी रुई के फाहों जसे हत्के फृत्फे, वरद बिरद से उजलें उजलें बादल दल के बीच बीच से भकाँक रहा ज्यों नील गगन हो । श्र वहाँ क्या छटा सनोरस । जेसे भस्म रमाए शिव का स्फटिक रजत हिम-सा उज्ज्वल तन जिसमें काले काले विषघर सोह रहे हों बन श्राभूषण ! सोह रहे हों रज-रज को ज्यों एक तत्व बन कर सत्‌ श्रो' तम । रूपान्तरकार $ श्री जानकीवल्लभ शास्त्री जन्म, सन्‌ १६१६, मेंगरा, विहार । रचनाएँ : काकली (सस्कृत में) | प्रसिद्ध कवि और दलोचक । सस्कत में श्राप *ललित-ललाम नाम से लिखते है । मुजफ्फरपुर के राम- दयाल सिद्द कालिज मे प्रा व्यापक |




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