स्थितप्रज्ञ - दर्शन | Sthitapragy - Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
177
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१५
१५५ कामना और जीवनाभिलाषा छूटने पर अब शारीर बाकी रहा सो,
केवल उपकारार्ध । “'निमंमो निरहकार ' पद से यही भाव सुचित
किया है
[हे
१५६ पूर्वॉक्त भावनावस्था और क्रियावस्था से भिन्न स्थित-प्रज्ञ की यह
ज्ञानावस्था बिल्कुल अवर्णनीय
१५७ भावावस्था में समगता है
१५८ क्रियावस्था में विवेक है
१५९ तीनों अवस्थाएँ मिलाकर स्थित-प्रज्ञ की एक ही अखण्ड वृत्ति
सोलहवा व्याख्यान श४६-१५५
[१]
१६० स्थित-प्रज की तिहेरी अवस्था के मूल में ईव्वर का विविध स्वरूप
१६१ ईव्वर का पहला रूप कंवल कुभ
१६२ दूसरा विश्वरूप
१६३ तीसरा दुभाशुभ से परे ब्रह्म-सज्ञित
१६४ गीता की परिभाषा में 'सतू', “सदसत्' 'न सत् नासत'
१६५ तक से सदसत् की चार कोटिया हो सकती है । इनमें तीन ही ईश्वर
पर चरिताथें
( २]
१६६ ईश्वर के और तदनसार स्थितप्रज्ञ के जीवन का यह विविध स्वरूप
“ज्ञान-यज्ञेन चाप्यन्ये' ब्लोक मे सूचित
१६७ इसीका और अधिक स्पष्टीकरण
१६८ बाह्य जीवनाकार मे भेद दिखाई देने पर भी सभी स्थितप्रज्ञो को
तीनो अवस्थाओ का अनुभव होता है
[दे]
१९६९ ये अवस्थाएँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर उपकारक ही है
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