प्रिथिविराज रासो की भाषा | Prithviraj Raso Ki Bhasha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.98 MB
कुल पष्ठ :
300
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8 ९ श्रभी तक प्रथ्वीराज रासो की चार प्राप्त परंपरायें निश्चित की जा सकती हैं। इसमें से ब्ृहत् रूपान्तर की लगभग ३३ मध्यम की ११ लघु की ५ और लघुतम की २ प्रतियाँ प्राप्त हैं । रायल एशियाटिक सोसायटी श्रोर नागरीप्रचारिणो सभा के प्रकाशित संस्करणों का संबंध वृददत् रूपान्तर से है। सभा का संस्करण जिन दो मुख्य प्रतियों पर श्राधारित है उनमें से प्राचीनतम प्रति का लिपिकाल कुछ .झस्पष्ट है । संपादकों के अनुसार वह सं० १६४० अथवा १६४२ है परंतु मेरे देखने में वह १७६७ प्रतीत होता है । उसकी एक फोटो कापी झन्यत्र दी जा रही है ताकि इस विषय के विशेषज्ञ उसका निणंय स्वयं कर लें । संभवतः ये सभी प्रतियाँ उदयपुर की उस प्रति पर झ्राघारित हैं जिसका लिपिकाल सं० १७६० वि० बतलाया जाता है श्रौर जो उदयपुर के मद्दाराणा अमर सिंह द्वितीय सं० १७५५-६७ वि० के राज्य काल में तैयार हुई थी । झन्य परंपराश्रों की प्रतियाँ अभीतक हस्तलिखित रूप में ही सुरक्षित हैं । यहाँ उदयपुर वाली दृस्तलिखित प्रति को आधार मानकर विभिन्न परंपराञं अथवा रूपान्तरों की तुलनात्मक तालिका प्रस्तुत की जा रही है । १. इन संख्याओं के आन्त झथवा विवादास्पद पाठ का एक कारण तो यह है कि उन पर सामने वाले पन्ने की स्याही की छाप पड़ गई है जिससे चार सख्याओं में से तीसरी संख्या कुछ झस्पष्ट हो गई है किन्तु दूसरा कारण उन संख्याशों की लिपि-शैक्नी मी है । सात की संख्या प्रायः शून्य की माँति गासाफोर सिख गई है झन्तर इतना ही है कि इसमें ऊपर की छोर बाइ झोर थोड़ा सा हिस्सा खुला हुआ है। प्रति में झन्यत्र लिखित संख्याझों की लिपि-शैक्षी को देखने से पता चलता है कि यह संख्या सात की ही है । इसी प्रकार प्रति की लिपि-शैद्ती के द्वारा तीसरी स्पष्ट संख्या का भी पाठ-नियाय हो जाता है और वह छुद् ही है। इस प्रकार मेरे घिचार से इस प्रति का लिपि-काल्ष १७६७ वि० होना चांदिए ।
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