प्रेमघन - सर्वस्व भाग - 1 | Premaghan Sarvasv Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
676
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ६ )
पद्धति पर कंवित्त सबैयों में चलती रहीं दूसरों श्रोर देशभक्ति,
देशगौरव, देश की दोन दशा, समाजसुधार, तथा श्ौर श्नेक
सामान्य घिषयों पर कविताएँ प्रकाशित होती थीं । इन दूसरे ढंग
की कविताओं के लिए रोला छुन्द उपयुक्त समका गया था |
भारतेन्दु -युग प्राचीन श्रौर नवीन का संघधिकाल था। नबीन
भावनाओं को लिए हुए भी उस काल के कवि देश की परम्परागत
चिरसंचित भावनाओं श्रौर उमंगों से भरे थे। भारतीय जीवन
के विविध स्वरूपों की मार्मिकता उनके मन में बनी थी । उस
जीवन के प्रफुन्न स्थल उन हृदय में उमंग उठाते थे। पाश्चात्य
जीवन झौर पाश्चात्य साहित्य की श्रोर उस समय इतनी टकटकी
नहीं लगी थी कि अपने परम्परागत स्यरूप पर से दृष्टि एक-
चारगी हटी रहे । होली, दीवाली, विजयादशमी, रामलीला, सावन
के भूले श्रादि के अवसरों पर उमंग की जो लहर देश भर में
उठती थीं उनमें उनके हृदय की उमंग भी योग देती थीं । उनका
हृदय जनता के हृदय से विच्छिन्न न था । चोधघरी साहब की
ग्चनाओं में यह वात स्पष्ट देखने को मिलती है। जिस प्रकार
उनके लेख शोर कविताएं नेशनल कांग्रेस, देशदशा, झादि पर
४ उसी प्रकार त्योहारों, मेलों श्रौर उत्सवों पर भी । मिजांपूर की
कजली प्रसिद्ध है। चौधरी साहब ने कजली की पक पुस्तक ही
लिख डाली है जो इस पुस्तक में बर्षाविन्दु के अन्तर्गत संग्रददीत
है। उस संघिकाल के कवियों में ध्यान देने की बात यह है कि
वे प्राचीन श्र नवीन का योग इस ढंग से करते थे कि- कहीं
से जोड़ नहीं जान पड़ता था, उनके दाथों में पढ़कर नवीन भी
प्रा्दीनता का ही एक विकसित रूप जान पढ़ता था ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...