सुख यहाँ | Sukh Yahan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सुख यहाँ प्रथम भाग पृ
इसके भीतर के मर्मपर दृष्टि रखो तथा बाहा सब छोड़ो तथा अपने को पहिचानो । मुझे अमुकने
गाली दी ऐसा मन मे भाव लाना ही दु खजनक है । भैया ! अपने से प्रतिकूल जीवो पर भी करुणा
कर समान भाव पैदा करो | सोचो कि ये जो प्रतिकूल प्राणी है, ये अज्ञानी है. । जिन्हे अपनी आत्मा
के स्वरूप का ज्ञान ही नही है । वे अपने स्वभाव को जान जावे ऐसी करुणा उनके ऊपर करनी चाहिये ।
किसी भी जीव से घृणा नहीं करनी चाहिये .। जगत् मे कोई भी जीव घृणा का पात्र नही है ।
सब जीवों का_सहजस्वरूप टकोत्कीर्णवत् स्वत निश्चल एक ज्ञायकस्वरूप है. | द्रव्यद्रष्टि से देखो
तो निर्विकल्प अनादि अनन्त अहेतुक चेतन तत्व है । गुणदृष्टि से देखो तो सभी ध्रुवशक्तिमय है अत
सिद्धप्रभु मे और समस्त जीवो मे कोई अन्तर नही है । केवल वर्तमान परिणतिकी दृष्टि से देखने पर
अन्तर दिखता है । सिद्धप्रभु तो शुद्ध विलासरूप है और ससारी जीव अशुद्ध विलासरूप है । यह अन्तर
है, चूकि भोगने मे तो परिणति ही आती है अत महानू अन्तर है तो भी यह परिणति जीव के स्वभावकृत
नही है, किन्तु .निमित्तनैमित्तिभावपद्धतिविहित है । अत मूल मे कुछ भी अन्तर नही है |
सिद्धप्रभु की तरह शुद्ध केवल ज्ञानमय बनने का क्या उपाय है ? अपने आपको केवल निरखना,
ज्ञानमय निरखना केवलज्ञानी बनने का उपाय है । हम अपने को जिस रूप मे निरखेगे उस रूपकी प्राप्ति
होगी । अतः हम अपने को यथार्थ सहज निजस्वरूप जैसा है वैसा ही चित्स्वभावरूप अपने को अनुभवे |
मै स्वत. सत् हू, स्वत परिणामी हूँ, स्वतन्त्र हूँ, विज्ञानानन्दघन स्वच्छ अविनाशी हूँ-इस प्रकार अपना
अनुभव करो । सत्य सुखी होने का यही एक उपाय है |
विश्वतो भिन्न एकोर्जापे कर्ता योगोपयोगयो. ।
रागद्वेषविधाता5झसमु-स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयमु 111१-३1
अर्ध- समस्त पदार्थ से न्यारा अकेला होने पर भी मैं योग अथवा आत्मा के प्रदेश परिस्पन्द तथा उपयोग
का कर्ता और राग द्वेष का करने वाला हुआ । अत श्राति रहित॑ होता हुआ मैं अपने में अपने लिये
स्वयं सुखी होऊँं।
इस जगत् के अन्दर अनन्तानन्त जीव है, अनन्तानन्त पुदूगल है । धर्म एक है, अधर्म एक है, आकाश
एक है, असख्यात कालद्रव्य है किन्तु फिर भी प्रत्येक परमाणु सारे अनन्तानन्त परमाणुओ से भिन्न है|
सारे अनन्तानन्त परमाणु भी प्रत्येक परमाणु से भिन्न है । एक स्कन्थ की अपेक्षा भी प्रत्येक परमाणु अपने
क्षेत्र मे ही परिणमन करता है । कोई भी एक परमाणु अनन्तानन्त परमाणुओ से भिन्न है । सत् की
अपेक्षा धर्म, अधर्म आकाश, काल भी जुदा जुदा है । स्कन्थ में परमाणुओ का परिणमन सामूहिक रूप
से होता है किन्तु फिर भी प्रत्येक परमाणु अपने-अपने क्षेत्र मे ही परिणमन करता है | इसी प्रकार प्रत्येक
जीव अनन्तानन्त जीवो से जुदा है । यह प्राणी जो मोह माया मे फसकर रातदिन विचरता रहता है कि
यह मेरा है , यह मेरे घर का है, यह सब व्यर्थ है क्योकि अपने स्वभाव से बाहर अपना क्या है? चैतन्यस्वभाव
के अतिरिक्त ये वैभव ये ठाठ वाट सब व्यर्ध है । जिसने अपना स्वभाव समझ लिया उसके लिए ये सब
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