सुख यहाँ | Sukh Yahan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image :  सुख यहाँ  - Sukh Yahan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about स्वामी सहजानन्द सरस्वती - Swami Sahajananda Saraswati

Add Infomation AboutSwami Sahajananda Saraswati

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सुख यहाँ प्रथम भाग पृ इसके भीतर के मर्मपर दृष्टि रखो तथा बाहा सब छोड़ो तथा अपने को पहिचानो । मुझे अमुकने गाली दी ऐसा मन मे भाव लाना ही दु खजनक है । भैया ! अपने से प्रतिकूल जीवो पर भी करुणा कर समान भाव पैदा करो | सोचो कि ये जो प्रतिकूल प्राणी है, ये अज्ञानी है. । जिन्हे अपनी आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ही नही है । वे अपने स्वभाव को जान जावे ऐसी करुणा उनके ऊपर करनी चाहिये । किसी भी जीव से घृणा नहीं करनी चाहिये .। जगत्‌ मे कोई भी जीव घृणा का पात्र नही है । सब जीवों का_सहजस्वरूप टकोत्कीर्णवत्‌ स्वत निश्चल एक ज्ञायकस्वरूप है. | द्रव्यद्रष्टि से देखो तो निर्विकल्प अनादि अनन्त अहेतुक चेतन तत्व है । गुणदृष्टि से देखो तो सभी ध्रुवशक्तिमय है अत सिद्धप्रभु मे और समस्त जीवो मे कोई अन्तर नही है । केवल वर्तमान परिणतिकी दृष्टि से देखने पर अन्तर दिखता है । सिद्धप्रभु तो शुद्ध विलासरूप है और ससारी जीव अशुद्ध विलासरूप है । यह अन्तर है, चूकि भोगने मे तो परिणति ही आती है अत महानू अन्तर है तो भी यह परिणति जीव के स्वभावकृत नही है, किन्तु .निमित्तनैमित्तिभावपद्धतिविहित है । अत मूल मे कुछ भी अन्तर नही है | सिद्धप्रभु की तरह शुद्ध केवल ज्ञानमय बनने का क्या उपाय है ? अपने आपको केवल निरखना, ज्ञानमय निरखना केवलज्ञानी बनने का उपाय है । हम अपने को जिस रूप मे निरखेगे उस रूपकी प्राप्ति होगी । अतः हम अपने को यथार्थ सहज निजस्वरूप जैसा है वैसा ही चित्स्वभावरूप अपने को अनुभवे | मै स्वत. सत्‌ हू, स्वत परिणामी हूँ, स्वतन्त्र हूँ, विज्ञानानन्दघन स्वच्छ अविनाशी हूँ-इस प्रकार अपना अनुभव करो । सत्य सुखी होने का यही एक उपाय है | विश्वतो भिन्न एकोर्जापे कर्ता योगोपयोगयो. । रागद्वेषविधाता5झसमु-स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयमु 111१-३1 अर्ध- समस्त पदार्थ से न्यारा अकेला होने पर भी मैं योग अथवा आत्मा के प्रदेश परिस्पन्द तथा उपयोग का कर्ता और राग द्वेष का करने वाला हुआ । अत श्राति रहित॑ होता हुआ मैं अपने में अपने लिये स्वयं सुखी होऊँं। इस जगत्‌ के अन्दर अनन्तानन्त जीव है, अनन्तानन्त पुदूगल है । धर्म एक है, अधर्म एक है, आकाश एक है, असख्यात कालद्रव्य है किन्तु फिर भी प्रत्येक परमाणु सारे अनन्तानन्त परमाणुओ से भिन्न है| सारे अनन्तानन्त परमाणु भी प्रत्येक परमाणु से भिन्न है । एक स्कन्थ की अपेक्षा भी प्रत्येक परमाणु अपने क्षेत्र मे ही परिणमन करता है । कोई भी एक परमाणु अनन्तानन्त परमाणुओ से भिन्न है । सत्‌ की अपेक्षा धर्म, अधर्म आकाश, काल भी जुदा जुदा है । स्कन्थ में परमाणुओ का परिणमन सामूहिक रूप से होता है किन्तु फिर भी प्रत्येक परमाणु अपने-अपने क्षेत्र मे ही परिणमन करता है | इसी प्रकार प्रत्येक जीव अनन्तानन्त जीवो से जुदा है । यह प्राणी जो मोह माया मे फसकर रातदिन विचरता रहता है कि यह मेरा है , यह मेरे घर का है, यह सब व्यर्थ है क्योकि अपने स्वभाव से बाहर अपना क्या है? चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त ये वैभव ये ठाठ वाट सब व्यर्ध है । जिसने अपना स्वभाव समझ लिया उसके लिए ये सब




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now