समकित सार भाग - २ | Samkit - Sar Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
514
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समकित सार । ( हे३)
“९
भाई, समक्ित शत्पोद्धार के रचयिता जी । घ्यापकी
रचित पुस्तक को सिर से पैर तक पढ़ जान पर भी, यह
उसके द्वारा कद्दीं जान दी नं पड़ता, कि 'समकित' क्या
चस्तु है । क्या, श्राप के विचाराजुसार, चदद कोई गन्दी चीज
हैं, या कोई वाट का बटोहदी दे * फिर, सम।कितबान्, पुरुष
को तो, क्षमा, झशात्ति, कट, भाषण, ५1; वाक्य झनगल
ब्यालाप प्रलाप, ्ौर इन्हों को जाति के झनेकों झन्य झचयुणों
से, निरन्तर पराड्सुख रददना चाहिये । परन्तु इस पुस्तक के
पक रचायिता के नाते, शापने तो, यत्र, तत्र इसमें, ऐसे
कुत्सित और गन्दू शब्दों का खुले बाजार व्यवहार किया दे,
कि जिससे इस पुस्तक ही का नाम झऔर कलेवर फलाकित
नहीं हुश्ा, वरन्, इस प्रकार के गन्दे व्यवहार से झापने
बपनी मद्दीयसी बुद्धि की महानता | ? ) भी जैन-समुदाय पर
प्रकट कर दी हैं ।
भाई ' ऐसा भयड्टर भूत आपके झन्द्र कहां से भर गया
है । कि जिससे, समकित, खरीखे पवित्र नाम की पुस्तक में,
ब्यापने ऐसे कटुप्रष्टता, पूर्ण, लुच्चाई झर लफंगेपन से भरे,
पूर, व झविवेक्रता से झोत, प्रोत वाक्य लिख मारे । परन्तु
व हमें पता चला; कि सचमुच में यह सर्माकत का शल्य
घ्याप ही के हृदय में अटका हुआ था । अस्तु !
श्माप सर्रीखों के लिये यह योग्य ही था, कि घाप स या
उ्न्य से, न्याय से या अन्याय से, नीति से या नीति से,
लाचारी से या वरजोरी से, सीघेपन से या कुटिलता से जैसे
भी ड्ोता, उस शल्य को झपने हृदय से खींचना ही, ापका
पक सात्र लद्य था । लानत है स्वाथे सनी इस बुद्धि पर ।
ौर वार वार फिटकार हैं”. * को,
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