गोली | Goli

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Goli by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जन्मजात कलंक्रिली में जन्मजात अभागिनी हूं । स्त्री जाति का कलंक हूं। स्त्रियों में अघम हूं । परन्तु में निर्दोप हूं, निप्पाप हूं। मेरा दुर्भाग्य मेरा अपना नहीं है, मेरी जाति का है, जातिपरम्परा का है। हम पेदा ही इसलिए होती हूं कि कलंकित जीवन व्यतीत करें। जसे मैं हूं ऐसी ही मेरी मां थी, परदादी थी, उनकी भी दादियां-पर- दादियां थीं । मेरी सब बहिनें ऐसी ही हैं । मैंने जन्म से ही राजसुख भोगा, राजमहलन में पलकर मैं वड़ी हुई, रानी की भांति मैंने अपने यौवन का स्पंगार किया । हीरे- मोती मेरे लिए कंकर-पत्थर के ढेर थे | मैं मुहरें लुटाती थी, सुनहरी छपरखट पर सोती थी, नित नये छप्पन भोग खाती थी। जरी के पर्दों वाली सुखपाल पर चाहर कलती थी या हाथी पर सुनहरे होदे में चैठती थी । रंगमहल में मेरा ही भदल चलता था । दासियां और वांदियां हाथ वांघे मेरी सेचा में रहती थीं। राजा मेरे चरण चूमता था, मेरी भौंहों पर तनिक-सा वल पड़ते ही वह वदहवास हो जाता था । उसका प्रेम समुद्र की भांति अपाह था । प्रजा उसके आतंक से कांपती थी । वह अपने हाथों मेरा स्ंगार करता मंहूंदी लगाता, जुड़े में फूल गूंथता, इत्र भौर सुगन्घों की देशी-विलायती शीधियां मेरे अंग पर विखेरता रहता। दिन में पांच वार में पोशाक बट प, हे हा ट# ' *ै कर्पप न लक न गन अनाज 4 गे श रा || थ थक न क्न कक मे न दी व ७ १ दर चर चति




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