उपमितिभावप्रपाणवहकता (प्रथमप्रस्ताव) | Upmitibhavprapanchakatha (prathamprastav)
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
216
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इस काका कथाशरीर इसके “'उपपितिभवप्रपंचार इस नामसे
ही प्रतिपादित होता है। क्योंकि इसमें एक कयाके मिपसे (बहानेसे)
संसारके प्रपंरचीकी उपमिति जर्यात्् समानता बतलाई गई हैं। इस
मंतारके प्रपंचक्ा अर्थात् विस्तारका यदचपि सभी प्राणी प्रत्यक्ष
अनुभवन करते हैं-इसे सच ही जानते हैं, तो भी यह परोक्ष सरीखा
जान पड़ता है, इस लिये यह वर्णन करनेके योग्य समझा गया ।
इस प्रकार श्रम और अज्ञानका नाश करनेके लिये यह स्तिरूपी
बीजको उगानिवाठा कथाका अर्थ संग्रह करके अर्थात् कथाके भेद और
उसके श्रोतता जादि बतलाकर अब कवयाशरीर अथात् कथाकी रचना
कहते हैं:--
यह कथा दो प्रकारकी है, एक अन्तरंग और दूसरी चाहा । इनमेंसे
पहले जन्तरंगकथाशरीरकों जर्थात् जन्तरंग रचनाकों बतलते हैं:--
न
््द
अन्तरंगकथाशरीर । की
इस कयाकें स्पष्ट रीतिसे आठ प्रस्ताव ( प्रकरण ) किये जावेंगे !
कक लि
उनमें जो विषय कहें जावेंगे, वे इस प्रकार हैंः--
१. प्रथम प्रस्तावमें मैने जिस देतुसे यह कथा इस प्रकारसे रची
हैं, उसका प्रतिपादन किया जायेगा ।
कक की यमन
समस लेते, परन्तु दूसरे जो शागणादि विद्वान, इ-जो प्राकृत नहीं पढ़ते हूं-
नद्दीं समझते $, ये इससे छाभ नहीं उठा सकते । ऐसा जान पड़ता है कि,
'डार्िटरथ' दाय्द देकर शर्यफसोनि चेदानुयायी विद्वानोपर साकषेप किया है, जो
मुखवाप्य प्राकृतदों भी नहीं पड़ते हूं 1 ध्रन्यक्तोदे समयमनें जनी ही बहुत
फरके प्राहत पहने थे । घादाण विद्वान, भी इस अपूर्व प्रम्थकों पढ़कर अपना
क्याण करें, दस अभिप्रायसे ही यद ग्रन्थ संस्कृतमं रचा गया हूं ।
५ ट्रस पुस्तकर्में जो कि छपकर प्रकाशित होती हूं, केवल पहला म्रस्ताव हू ।
इसके नाग प्राय: इतने ही बड़े २ सात अस्ताव और हैं। वे आगे कमते प्रकाशित
दिये जायेंगे ।
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