भारतीय साहित्य कोश | Bhartiya Sahitya Kosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंकीयानाट (अ० पारि०) असमीया ही नहीं अपितु किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में सबसे पहले श्री शंकरदेव (दे०) ने नाटकों का प्रवर्तन किया था। इन्होंने असम के बाहर के प्रदेशों में रामलीला, यात्रा आदि का अभिनय देखकर उन्हें प्रचार के लिए अधिक प्रभावद्ाली समभा था । दूसरी ओर असम प्रदेश में (दे० ) का अभिनय होता ही था । इसी को संस्कृत-नाटकों के अनुरूप परिमार्जित कर इन्होंने अंकीयानाट लिखे । अंकीयानाटों की ये विशेषताएँ हैं-- (1) सुत्रघार की प्रधानता, (2) काव्यात्मक गीत-इलोक और पयार छंदों का प्रयोग, (3) ब्रजावली अथवा ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग, और (4) लयात्मक गद्य का व्यवहार । सुत्रधार का प्रयोग संस्कृत नाटकों जंसा ही है, किंतु इन्होंने दर्दोकों के अनुरूप कुछ परिवततेंन किये हैं । यहाँ सुत्रघार गायक, नतेंक, परिस्थितियों का व्याख्याता और अभिनय- संचालय भी होता है । वह दर्शक और पात्रों का मध्यस्थ होता है । आधुनिक नाट्यकार मंचीय निर्देशों द्वारा जो कार्य करता है, वह सुत्रघार स्वयं करता है। अंकीयानाट में तीन प्रकार के गीतों का प्रयोग होता है : (1) भक्तिप्रधान गंभीर भटिमा (दे०) गीत, (2) कथा के अंगीभूत राग- ताल-युक्त अनुभूतिशील गीत, (3) वर्णनात्मक पयार छंद । दंकरदेव ने ये अंकीयानाट लिखे थे---'पत्नीप्रसाद' (दे० ), 'कालियदमन', 'केलिगोपाल”, “रुक्मिणी-हरण', 'पारिजात- हरण नाट' (दे०) और “राम-विजय' नाट (दे०) । इनके दिष्य माधवदेव (दे०) ने भी अंकीयानाट लिखे थे । अंग (प्रा० कु ०) जैन धर्म के वेद-स्थानीय सर्वाधिक प्रामाणिक आगम (दे० जैन-आगम) ग्रंथ 'अंग' कहलाते हैं । इनको द्वादशांग और गणिपिटक के नाम से भी अभिहित किया . जाता है। इनकी भाषा अधंमागधी, आषें या प्राचीन प्राकृत मभारतौय साहित्य-कोदका मानी जाती है । यह महावीर (दे० )-वाणी है और सुधर्मा प्रभुतति गणघर (दे० )-प्रणीत मानी जाती है । इनकी संख्या 12 है जिसमें 14 पर्वों के विच्छिन्न भाग से निर्मित भी सम्मिलित है कितु इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है । इन अंगों में गद्य, पद्य और मिश्रित सभी कलियाँ प्रयुक्त हुई हैं । गद्य की अपेक्षा पद्य में कलात्मकता अधिक पाई जाती है । 12 अंग ये हैं--(1) 'आयारंग' (आचारांग) : इसके तीन भाग हैं--प्रथम श्रुतरकंध में जैन साधुओं के लिए कठोर नियम बतलाये गये हैं । दूसरे भाग चूल (परिशिष्ट) के प्रथम दो भागों में भिक्षाटन इत्यादि के नियम हैं और तीसरे भाग में महावीर स्वामी की जीवनचर्या है । (2) 'सुयेंगडंग' (सुचकृतांग) : यह सिद्धांत-निरूपण-परक अंग है । इसमें विभिन्‍न पाखंडियों और नास्तिकों के विभिन्‍न वादों का खंडन किया गया है और धरमें-मागं में आनेवाले विभिन्‍न विघ्नों का निरूपण कर उनसे दूर रहने का उपदेश दिया गया है । (3) 'ठाणांग' (स्थानांग ) और (4) “समवायांग' : इन दोनों अंगों में संख्या के आधार पर उपदेश दिये गये हैं--गणांग में 1 से 10 तक संख्याएं हैं और समवायांग में संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है । (5) “भगवती वियाह- पन्‍्नहिं' (व्याख्या-प्रज्ञप्ति) : कहीं-कहीं इसे केवल भगवती नाम से अभिहित किया जाता है। कुछ तो प्रदनोत्तर रूप में और कुछ प्रवचन (इतिहास-संवाद) के रूप में लिखा हुआ यह ग्रंथ सिद्धांत-प्रतिपादन, महावीर स्वामी की जीवनचर्या, इतिहास, पुराण, कथा और देद-वर्णन इत्यादि की दृष्टि से जैन अंगों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसमें कवित्व भी पर्याप्त मात्रा में है। (6) “नया धम्म कहाओ' (ज्ञात घर्मकथा ) : इसमें सभी प्रकार की छोटी-बड़ी, कथाओं, यात्रा-विवरणों, काल्पनिक कथाओं के माध्यम से संयम, तप इत्यादि का उपदेश दिया गया है। (7) 'उपासक दसाभो' (उपासक दशा) । (8) “अंतगउदसाओ' (अंत- और (9) “अणत्तरोववायदसाओ' (अनुत्त रोप-




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