मेरी जीवन यात्रा | Meri Jeevan Yatra
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
230
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कुटुम्य-पात हरे
साख थी भोर वह जवतक रहे तमतक धन-पान्य से भरेपूरे रहे।
उनका यह स्वमाव-सा हो गया था रि थोड़ा-वहुत मुनाफा मिलता तभी वह
भाल बैच देते, ज्यादा लोम में न पड़ते !
चनका झफोम का धन्धा था । सेतों से अफीम के रस के घड़े-के-पड़े
भरकर भाते । कुछ दिनों रसे रहने के वाद उस रस को बड़ी-वड़ी परातों
में मया जाता भ्ौर फिर लदइ जैसे गोले बनाए जाते । इसे श्रफीम की
गोटियाँ कहते थे । कोठों में लाधों की श्रफीम भरी रहती थी ।
कहावत है कि लोभ गला कटता है। पिताजी के बाद भर के लोगों
को प्राय: घाटा ही उठाना पड़ा, पयोक्ति वे उनकी नीति के अमुसार नहीं
चले । थोड़े नफे में सन्तोप मानवेवाले को जोसम कम उठानी पढ़ती है मौर
वह लाभ में ही रहता है । उनके जीवन में कुटुम्ब की स्थिति सभी दृष्टि
से प्रच्छी रही ।
विवाहू के बाद जब में ससुराल जानें लगी तब पिताजी ने कहा था--
“बेटी, तू पराये घर जा रही है। वहाँ अच्छी तरह रहना । ज्पादा न
बोलगा । कोई चार वार कहे तो एक थार वोलना ।
जैसा उनका जीवन भव्य रहा वैसी हो उनकी मृद्यु भी । जिस दिन
उनका स्वगंवास हुमा, उस दिन सुबह वह मदिर गये; ग्यारहें बजे तक
चिट्ठियाँ लिखते रहे । फिर नहाकर धोती पहन रहे थे कि उनको चक्कर
आ गया । कमरे में झापे और लेट गए । लोग इकट्ठे हो गए । डाक्टरों को
बुलाया गया । इन्दौर से भी डानटर युलाये गए, पर कुछ भी फायदा ने
हुआ । शाम को सातें बजे उनका देहान्त हुआ । कहते हैं, उनका प्राण
ब्रह्माण्ड में से निकला । सिर ऊपर से फट गया था भौर खुन गिरा । ऐसी
मृत्यु किसी थोड़ी या महापुरुप की होती हैं, ऐसा कहा जाता है ।
उस समय मेरी भायु दस-ग्यारह साल की थी
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