जैन संस्कृति का राजमार्ग | Jain Sanskriti Ka Rajmarga

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Jain Sanskriti Ka Rajmarga by श्री गणेशलाल जी - Sri Ganeshlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन-संस्कृति को दिशालता १७ गुणों से श्रात्मा चरम विकास की ओर गतिशील हो, यही जैन दर्शन एव सस्कृति की मूल प्रेरणा है । मुझे श्राप नवयुवकों से यही कहना हे कि ग्राप जैन दर्शन एव सस्कृति की इस विालता एवं सहानता को हृदयगस करे एव उस प्रकाका में श्रपने जीवन का निर्माण तथा विकास साधे । ग्रथी मँने “सम” दझाव्द का जो भ्र्थ व्ययतन किया, वह केवल साधुभ्रो के लिए ही नहीं है । झाप लोगो को भी शास्जका रो ने 'समणोपासक' कहा है प्रधात्‌ समण-सस्कृति की उपासना करने वाले समखा-दत्ति के श्रनुसार श्राचररण करने वाले । श्राप लोगो ने जैन सोसायटी नामक सस्या स्थापित की है तथा जैन- सन्कति के प्रचार की वान झ्राप सोच रहे है । यह भ्र्छा है, लेकिन इन कार्यो मे अपने प्रत्येक कदम पर जैन दर्णन एव सस्कृति की सूल भावना का स्व ख्याल रखना । जो हष्टिकोणा मैंने आपके सामने रखा है, उसके शझ्रनुसार यदि श्राप जन-सस्कृति का प्रचार करते हो तो प्रत्येक घर्म व सस्कृति के सत्याशों का स्वत ही प्रचार हो जाएगा । पयोकि जेनदशंन का कभी भ्राम्रह नही कि उसका भ्रपना कुछ है-- वह तो सदादययों का पुरज है, जहाँ से सभी प्रेरणा पा सकते है । न्ञाह्मण-सस्कृति व पाइचात्य देशो मे भी अहिसा, सत्य एवं पुरु- पा्थ के जिन रयों का प्रवेश हुमा है, उसे जैन-सस्क़ृति की ही देन समकना चाहिए। याथी जी ने भी श्रहिसा को साघन बनाकर देश के स्वातथ्य- झाग्दोलन को मज़ूत बनाया, वह भी जैन-सस्कृति की ही विजय है । भगवान महावीर ने किसी प्रकार की गुटवन्दी, साम्प्रदायिकता फैलाने का बसी नहीं सोचा । उन्होंने तो श्रम, समता, सद्दतति की सन्देव-वाहक श्रमण-सस्कृति का प्रचार करके युण-पूजक सस्कति का निर्माण किया श्रीर झनेवान्त के सिद्धान्त से सवका समन्वय करना सिखाया । इसलिए इस संस्कृति वा प्रचार करना है तो सयम को कभी मत भुलना । सस्कृति के दिवास का मूल सयम है । जैनवमें यही शिक्षा देता है कि सयम के पथ पर बलवार साधा हुमा दिकास ही सच्चा विकास है । जहाँ श्रपनी छत्तियों पर




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