संचारिणी | Sacharini
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
272
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हर भक्ति-काल की अन्तचतना
है। लौकिक जीवन के हमने आध्यात्मिक संस्कृति द्वारा
लोकोत्तर बनाया है। पश्चिमीय सभ्यता लौकिक है, अतएव वह
कला के, जीवन के, ऊपरी ढाँचे ( झाकार ) के ही देखती है,
चहाँ इसी अथ में कला कला के लिए” है। किन्वु हम स॒न्दर्मू
के स्थूल ढाँचे में सूक्ष्म चेतना के देखते हैं, इसी लिए सुन्द्रम से
पहिले सत्यमू-शिवमू कह कर मानो साष्य कर देतें हैं। इस
प्रकार हस उस चेतना के श्रहण करते हैं जिसके द्वारा सौन्दय्ये
साधार एवं अस्तित्वमय है |
दम अपनी सस्कृति में एक कवि है, पश्चिम अपनी सभ्यता
में एक वैज्ञानिक । स्थूलता ( पाथिवता ) के ही रहस्यों में
निम्न रहने के कारण वह निष्प्राण शरीर के भी अपनी वेज्ञा-
निक प्रयाग-शाला में रखने के तैग्रार है, जब कि हम उसे निस्सार
सान कर महार्मशान के सिपुदें कर देते हैं। जो हसारा त्याज्य
है, वह पश्चिम का श्राह्य है; इसी लिए वह उसे कन्नों और
' स्यूजियमों में सं जोये हुए है। हमारा जो श्राह्म है, से हम सँजोते
है काव्य में, संगीत में, चित्र में, मूत्ति में,--व्यक्ति की स्मृति के
अर्थात् उसकी अदृश्य चेतना को । हमारे ये चित्र, हमारी ये
मूत्तियाँ, जड़ता की प्रतिनिधि नहीं; जब हमने शरीर के ही सत्य
नहीं माना तब मूत्ति के क्या सानेंगे ! हम सूत्ति के ही सम्पूण
ईश्वर नहीं मानते । जब कोई मूत्ति, खशणिडत कर दी जाती है
तब दम यह नहीं समकते कि इंश्वर का नाश हो गया, बल्कि
पद
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