संचारिणी | Sanchharini

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Sanchharini by शांति प्रिय द्विवेदी - Shanti Priya Dwiwedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सच्चारिणी क्‍ जीवन की ट्रेजडी नारी के बजाय पुरुष के कन्धों पर पढ़ती तो हमारे आज्रमों की व्यवस्था ही बदल जाती । तब शायद एक ही आश्रम रह जाता गृहस्थ। काव्य में एक ही रस रह जाता - शृद्धार। उस स्थिति में राम-चरित्र और ऋृष्ण-चरित्र का कथानक ही कुछ और हो जाता | [ २ | हम पौराणिक भारतीयों की वैष्णव संस्कृति कलात्मक है, जिसका परिचय हमें अपने चित्रों, मूत्तियां और दशावतार की माँकियों से मिलता है। यह सम्पूर्ण कलासृष्टि आध्यात्मिक संस्कृति के प्रकाशन के लिए है। वर्णमाला का बोध कराने के लिए जिस प्रकार शिश्ुु-हाथों में सचित्र पोधियाँ दी जाती हैं, उसी प्रकार जनता का अदृश्य आत्मानन्द का ज्ञान करने के लिए हमार समाज और साहित्य मे सगुण আাহাঘলা श्र्थात्‌ भक्ति-मय चित्र-काव्य उपस्थित किया गया है । इस प्रकार सत्य ने सौन्दय्ये धारण किया है, अदृश्य ने दृष्टान्त पाया है। वे सगुण माँकियाँ आज के लैन्टन-लेक्चरों ( व्याख्यान-चित्रों ) से अधिक सजीव और मानवी हैं। वे अवैज्ञानिक नहीं, मनोवैज्ञानिक हैं; जनता की रसवृत्ति र काव्य हारा सहग करती है । हम सत्यम्‌-शिवम्‌-सुन्द्रम्‌ के चिरठपासक हैं, इंसलिए कि, हम केवल लौकिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति के पूजक ध




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