संचारिणी | Sacharini

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Sacharini by शांति प्रिय द्विवेदी - Shanti Priya Dwiwedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हर भक्ति-काल की अन्तचतना है। लौकिक जीवन के हमने आध्यात्मिक संस्कृति द्वारा लोकोत्तर बनाया है। पश्चिमीय सभ्यता लौकिक है, अतएव वह कला के, जीवन के, ऊपरी ढाँचे ( झाकार ) के ही देखती है, चहाँ इसी अथ में कला कला के लिए” है। किन्वु हम स॒न्दर्मू के स्थूल ढाँचे में सूक्ष्म चेतना के देखते हैं, इसी लिए सुन्द्रम से पहिले सत्यमू-शिवमू कह कर मानो साष्य कर देतें हैं। इस प्रकार हस उस चेतना के श्रहण करते हैं जिसके द्वारा सौन्दय्ये साधार एवं अस्तित्वमय है | दम अपनी सस्कृति में एक कवि है, पश्चिम अपनी सभ्यता में एक वैज्ञानिक । स्थूलता ( पाथिवता ) के ही रहस्यों में निम्न रहने के कारण वह निष्प्राण शरीर के भी अपनी वेज्ञा- निक प्रयाग-शाला में रखने के तैग्रार है, जब कि हम उसे निस्सार सान कर महार्मशान के सिपुदें कर देते हैं। जो हसारा त्याज्य है, वह पश्चिम का श्राह्य है; इसी लिए वह उसे कन्नों और ' स्यूजियमों में सं जोये हुए है। हमारा जो श्राह्म है, से हम सँजोते है काव्य में, संगीत में, चित्र में, मूत्ति में,--व्यक्ति की स्मृति के अर्थात्‌ उसकी अदृश्य चेतना को । हमारे ये चित्र, हमारी ये मूत्तियाँ, जड़ता की प्रतिनिधि नहीं; जब हमने शरीर के ही सत्य नहीं माना तब मूत्ति के क्या सानेंगे ! हम सूत्ति के ही सम्पूण ईश्वर नहीं मानते । जब कोई मूत्ति, खशणिडत कर दी जाती है तब दम यह नहीं समकते कि इंश्वर का नाश हो गया, बल्कि पद




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