दर्शनसार | Darshanasar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
69
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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नशा थपतथन तथा धन सतह /धलथ्ाथतथा हलक
तेन पुनः अपि च स्त्यु ज्ञात्वा मुनेः विनयसेनस्य ।
सिद्धान्त॑ घोषयित्वा सय॑ गत: स्वर्गढोकस्य ॥ ३९ ॥
अर्थ--विनयसेन मुनिकी सत्युके पश्चात् उन्होंने सिद्धान्तोका
उपदेश दिया, और फिर वे स्वयं भी स्वर्गठोकको चढ़े गये । अर्थात्
जिनसेन मुनिके पश्चात् विनयसेन आचार्य हुए और फिर उनके वाद
गुणमद्र स्वामी हुए ।
आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ ।
सण्णासभंजणेण य अगहियपुणद्क्खिओ जादो ३३
आसीत्कुमारसेनो नन्दितटे विनयसेनदीक्षित: ।
संन्यासमल्नेन च अगृह्दीतपुनदीक्षो जात: ॥ ६ ॥
अर्थ--नन्दीतट नगरमें विनयसेन मुनिके द्वारा दीक्षित हुआ
कूमारसेन नामका मुनि था । उसने सन्याससे अष्ट होकर फिरसे दीक्षा
नहीं ठी और
परिवज्जिऊण पिच्छं चमर घित्तूण मोहकालिएण ।
उम्मग्ग संकलियं बागडविसएसु सब्वेछु # २४ ॥
परिवज्य पिच्छे चमरं गृहीत्वा मोहकलितिन ।
उन्मार्ग: संकछितः बागडविपयेषु सर्वेषु ॥ ३४ ॥
अर्थ--मयुरपिच्छिकों त्यागकर तथा चेंवर (गौके वार्ठलोकी पिच्छी)
अहण करके उस भ्रज्ञानीने सारे वागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया।
इत्थीण पुणद्क्खा खुछलयछोयस्स वीरचीरियत्तं ।
कक्कसकेसग्गहणं छट्ठं च गुणव्वद नाम ॥ रे५ ॥
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