मुनिधर्म और तेरहपंथ | Munidharm Aur Terahpanth

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Munidharm Aur Terahpanth by कन्हैयालाल - Kanhaiyalalरघुवीर शरण - Raghuveer Sharan

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रघुवीर शरण - Raghuveer Sharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| जय देमक गौँवं के छिए विह्वार हुआ । उस समय मी थोड़ी घोड़ी दूँदे गिर एडी थी। एकबार जब जयगण में आहार पानी आधुका धातवमैंभी पिढे गाँव से आ पहुँचा | गले में चैधमठजी महाराज से मुलाकात हुई । वे किसी ठिकाने आहार पहुँचने जा रेवे।मैंभी उन के साथ हो गया । मैंने उन से पृष्ठा-कहों ठहरना है ! तो जिस ठिकाने उत्देंनि आहार दिया. वही ठिकाना मुक्त का दिया और बी आधा आहार दे दिया | बी चाह थी बाकी जावा आहार दूसरे टिकाने पहुँचावा था । चौथमठजी ने कहा कि मुझे लयुशंका करनी थी इसलिए आहार ठे आया बाकी आधा आहार दूसरे टिकाने देकर ल्युशंका निवारण कहूँगा । यह है इन का काम निकारने का कपटयुक्त ढंग | जयाणे से विद्वार कर के आति च्त वर्षा के कारण कायब बारह तेरह साधु पिछले गाँव में ठह्ह गए थे, उन में एक मैं भी था । इन साधुओं के हिए एक श्रावक जो चल गया था, बोठ बच्चों सहित वापिस पिठे गाँव आया और साधुओं से कहने ठगा-- मददाराज, वारिस की वजह से शाप लगें का बिहार नहीं हो सका इसठिए मैं वापिस भागा हूँ। रहोई बन रही है । झपा करके गोचरी के छिए पर्धाएिएगा [इस शिय और प्रहंग को ढेकर जो मेने पैम्फडेट प्रकाशित किए हैं उन में इस का जिक्र किया है] जयगणे में कुछ साधुगण भीर सामने ही ऐसी ऐसी आदोचंना ऋने कगे नो एक शाधुजीवन के छिए संबधा अनुपयुक्त दी नहीं बहिफ उस पर एक केश थी । एक चौधमलजी (दुसो ) नामक साधने चारीच दो घंढें तक ऐसी वर्ति घुनाई जिन में यदद भी कहा कि




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