मुनिधर्म और तेरहपंथ | Munidharm Aur Terahpanth
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
430
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
कन्हैयालाल - Kanhaiyalal
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रघुवीर शरण - Raghuveer Sharan
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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जय देमक गौँवं के छिए विह्वार हुआ । उस समय मी थोड़ी
घोड़ी दूँदे गिर एडी थी। एकबार जब जयगण में आहार पानी आधुका
धातवमैंभी पिढे गाँव से आ पहुँचा | गले में चैधमठजी
महाराज से मुलाकात हुई । वे किसी ठिकाने आहार पहुँचने जा
रेवे।मैंभी उन के साथ हो गया । मैंने उन से पृष्ठा-कहों
ठहरना है ! तो जिस ठिकाने उत्देंनि आहार दिया. वही ठिकाना
मुक्त का दिया और बी आधा आहार दे दिया | बी चाह थी
बाकी जावा आहार दूसरे टिकाने पहुँचावा था । चौथमठजी
ने कहा कि मुझे लयुशंका करनी थी इसलिए आहार ठे आया
बाकी आधा आहार दूसरे टिकाने देकर ल्युशंका निवारण कहूँगा ।
यह है इन का काम निकारने का कपटयुक्त ढंग |
जयाणे से विद्वार कर के आति च्त वर्षा के कारण कायब
बारह तेरह साधु पिछले गाँव में ठह्ह गए थे, उन में एक मैं भी
था । इन साधुओं के हिए एक श्रावक जो चल गया था, बोठ
बच्चों सहित वापिस पिठे गाँव आया और साधुओं से कहने ठगा--
मददाराज, वारिस की वजह से शाप लगें का बिहार नहीं हो सका
इसठिए मैं वापिस भागा हूँ। रहोई बन रही है । झपा करके
गोचरी के छिए पर्धाएिएगा [इस शिय और प्रहंग को ढेकर जो
मेने पैम्फडेट प्रकाशित किए हैं उन में इस का जिक्र किया है]
जयगणे में कुछ साधुगण भीर सामने ही ऐसी ऐसी आदोचंना ऋने
कगे नो एक शाधुजीवन के छिए संबधा अनुपयुक्त दी नहीं बहिफ
उस पर एक केश थी । एक चौधमलजी (दुसो ) नामक साधने
चारीच दो घंढें तक ऐसी वर्ति घुनाई जिन में यदद भी कहा कि
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