भारतीय संस्कृति और नागरिक जीवन | Bhartiya Sanskriti Aur Nagrik Jivan

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Bhartiya Sanskriti Aur Nagrik Jivan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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.विषय-प्रवेद ७७ है। जिस राज्य की प्रजा में स्वाभाविक रूप से घामिक, सांस्कृतिक, ऐति- हासिक एवं भापा-सम्वन्वी एकता एवं सामंजस्य नहीं होता, उस राज्य में सामाजिक शांति स्थायी नहीं रहती । जातीय एकता भी अत्यन्त आवइयक है । राज्य की जनता में जाति, घर्में, सभ्यता, संस्कृति और भाषा-सम्बन्वी भेद-भाव ऐसे न हों जो राज्य-शासन और सामाजिक जीवन में अव्यवस्था भौर गन्नान्ति पैदा कर दें । ४. झासन--शासन भी राज्य का प्रमुख मंग है। यदि किसी निश्चित प्रदेव में जनता स्थायी रूप से रहती है और उसमें पारस्परिक एकता भी हैं, परन्तु यदि वह किसी शासन के अधीन नहीं है, तो वह राज्य नहीं कहला सकती । शासन के अभाव में प्रजा के ऐसे संगठन घामिक, आधिक या साम्प्रदायिक ही हो सकते हें--राजनीतिक नहीं हो सकते । ५. प्रभुता--प्रभुता भी राज्य का प्रमुख और आावइ्यक मंग हू । प्रभुत्ता का अथ॑ थह हैं कि वह निर्दिष्ट प्रदेश जिसपर प्रजा स्थायी रूप से रहती है, और जिसका अपना शासन है, वह किसी वाह्य सत्ता के नियन्त्रण में न हो । स्वाधीनता के बिना कोई ऐसा प्रदेश राज्य नहीं कहला सकता । उदाहरण के लिए, भारतवर्ष में सन्‌ १९३१ की. जन- गणना के अनुसार ३५ करोड़ जन हैं। परन्तु भारत का शासन गौर घ्रभुता भारतीय प्रजा के हाथ में नहीं हैं । इसीलिए राजनीतिक परिभाषा में भारत राज्य नहीं है । राज्य श्यौर शासन में अन्तर उपर्युक्त विवेचन से राज्य मौर शासन का अंतर स्पष्ट है । सामान्यततया राज्य और शासन को पर्याव या समानार्थक माना जाता है। परन्तु एसी घारणा ग़लत हैं । राजनीतिक भाषा में राज्य और शासन में बड़ा भारी अंतर है। राज्य एक राजनीतिक समुदाय है और शासन उसका एक अंग है । देश के सभी निवासी सामान्यतया राज्य के सदस्य होते हें, परन्तु शासन- यंत्र का संचालन अल्प-संख्यक प्रजा के हाथ में होता है । यह तो संभव




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