शुकराज कुमार | Shukaraj Kumar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला परिच्छेद ।
कमकों एर देवता, किन्नर और नरोंके राजा अपने मणिमय मुकुटों-
चाले झस्तककों भुकाते हैं, जिन्होंने राग्ेष आदि सच चविकारों-
का ध्वंस कर डाला है, उन तीथेंडर देवताकी जय दो । संखार-
समुद्रमें डूबते हुए मनुष्यों को पार उतारनेवाले जहाजके समान,
सिद्धि-चधूके स्ामी अजर, अमर, अचर, असय, अपर, अपर-
स्पर, परमेश्वर, परमयोगीश्वर, हे. युगोदिजिनेश्वर !. मैं तुम्हे
श्रद्धा-पूचंक नमरुकार करता हूँ ।”
इस प्रकार इषंसे प्रफुछित चित्तके साथ मधुर भाषामें श्री
जिनेश्वरकी स्तुति करनेके वाद वे श्रइषि सर चित्तसे राजासे
योले,--“हे ऋतुध्वज राजाके छुछकी ध्वजाके समान सुमध्वज
राजा | आज अकस्माद् मेरे आधममें आकर तुम मेरे अतिथि
डुए दो, इसलिये मैं बड़े आनन्दके साथ तुम्दारा उचित आतिथ्य-
सत्कार करना 'वाहता हूँ ; क्योंकि बड़े भाग्यसे ही तुम्दारे जेखे
सअतिथियोंका जागमन दोता है ।”
यह सुन, राजा मन-दोी-मन ; सोचने लगे,--“ये महर्षि कौन
हैं? ये क्यों इस प्रकार आाग्रहके साथ मुसे अपने माधममें लिये
जा रहे हैं? मेरा नाम-पता इन्हें केसे मात्यूम हो गया £” मन-
'दी-मन यही सब सोचते-विचारते हुए राज्ञा शडा-भरे चित्तके
साथ ऋषिके पीछे-पीछे चलकर उनके आश्रममें आये । कारण,
'उत्तम पुरुषोंसे .किसीका शनुरोध टालते नहीं बनता ।
राजाकों अपने आश्रममें चढ़े आद्रसे पधघराकर उन महाते-
जस्वी ऋषिने बड़े इषंले कहा,--“हे राजन.! तुमने यहाँ आकर'
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