शुकराज कुमार | Shukaraj Kumar

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Shukaraj Kumar by पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । कमकों एर देवता, किन्नर और नरोंके राजा अपने मणिमय मुकुटों- चाले झस्तककों भुकाते हैं, जिन्होंने राग्ेष आदि सच चविकारों- का ध्वंस कर डाला है, उन तीथेंडर देवताकी जय दो । संखार- समुद्रमें डूबते हुए मनुष्यों को पार उतारनेवाले जहाजके समान, सिद्धि-चधूके स्ामी अजर, अमर, अचर, असय, अपर, अपर- स्पर, परमेश्वर, परमयोगीश्वर, हे. युगोदिजिनेश्वर !. मैं तुम्हे श्रद्धा-पूचंक नमरुकार करता हूँ ।” इस प्रकार इषंसे प्रफुछित चित्तके साथ मधुर भाषामें श्री जिनेश्वरकी स्तुति करनेके वाद वे श्रइषि सर चित्तसे राजासे योले,--“हे ऋतुध्वज राजाके छुछकी ध्वजाके समान सुमध्वज राजा | आज अकस्माद्‌ मेरे आधममें आकर तुम मेरे अतिथि डुए दो, इसलिये मैं बड़े आनन्दके साथ तुम्दारा उचित आतिथ्य- सत्कार करना 'वाहता हूँ ; क्योंकि बड़े भाग्यसे ही तुम्दारे जेखे सअतिथियोंका जागमन दोता है ।” यह सुन, राजा मन-दोी-मन ; सोचने लगे,--“ये महर्षि कौन हैं? ये क्यों इस प्रकार आाग्रहके साथ मुसे अपने माधममें लिये जा रहे हैं? मेरा नाम-पता इन्हें केसे मात्यूम हो गया £” मन- 'दी-मन यही सब सोचते-विचारते हुए राज्ञा शडा-भरे चित्तके साथ ऋषिके पीछे-पीछे चलकर उनके आश्रममें आये । कारण, 'उत्तम पुरुषोंसे .किसीका शनुरोध टालते नहीं बनता । राजाकों अपने आश्रममें चढ़े आद्रसे पधघराकर उन महाते- जस्वी ऋषिने बड़े इषंले कहा,--“हे राजन.! तुमने यहाँ आकर'




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