मीमांसा | Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रुपए की कहानी ्‌ु एक सिवका चलाया जाय, तो फिर १-१ सेर गेहूँ को अलग-अलग कोथ- लियो में हमे भर देना पडेग । उसमें काम तो काफी वढ ही जायंगा, पर जो सार भर की पुरानी कोथली होगी उसमे से, यदि वह फट गई तो, कुछ गेहूँ निकल भी जायेंगे ! इसलिए तौल का कोई भरोसा नही । गेहें की जात भी २-४ साल के बाद कोथली में खराब हो सकती हे । इसलिए नई कोथली जिससे नया गेहूँ होगा, उसे तो लोग स्वीकार कर छेगे, पर पुरानी कोथली को कोई छएगा भी नही, क्योकि उसके गेहूँ की जात के सम्बन्ध मे भी कोई खातिर नहीं । नतीजा यह होगा कि नई कोथली और पुरानी कोथली, याने नए और पुराने सिक्के, की कीमत मे फक॑ पड जायगा । पुरानी कोथली, अर्थात्‌ पुराने गेहूँ के सिक्के, का बट्टा लगने लगेगा--अर्थात उसकी कीमृत नई के मुकाविले में नीची होगी । इसके अलावा गेहूँ की कोथली का सिक्का वजनी भी होगा । १०० सिकको को एक साथ उठाना करीब करीब असम्भव-सा होगा। और भी अठ्चन है । कोथलियों का कपडा किसी काम से न आकर बरबाद होगा, वह फिजूलखर्ची अलग । मेरा खयाल है कि इसमे कितनी असुविधा हो सकती हैं, इसे विस्तार से समझाने की जरूरत ही नही है । बताना तो यह हूं, कि यदि हम सुविधा-असुविधा का खयाल छोड दे, और कीमत की स्थिरता का खयाल भी छोड दे, तो सिक्का किसी भी चीज * का हो सकता हैं । ऐसे असुविधावाले सिदुको का हमे प्राचीन समय मे वर्णन भी मिलता है । *सस्कृत व्याकरण में 'पचगु ', *पचायवा', 'सौद्गिकस' जेसे दब्द मिलते हू जिनसे पता चलता हैँ कि प्राचीन समय में यहा पशु, अनाज आदि से चीजें “खरीदी जाती थी । अप्रेजी सें [८८०18 प्र झाब्द “'आधिक” के अये में व्यवहत होता है। इसकी व्यृत्पत्ति लेटिन भाषा के 96८ए०1४ द्ाब्द से हूं, जिसका अर्थ हू ढोर, अर्थात्‌ गाय-बेल। कहते है कि महाकवि होमर ने जब कभी किसी चीज की कोमत बताई है तब वेलो की सख्या में--सो भारत की तरह ग्रीस में भी मूत्य मापने का काम इन पशुओ से लिया जाता था । प्राचीन काल में धनिको के घन की साप भी पशुओ से की जाती भर




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