कसायपाहुडं | Kasay Pahudam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
397
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १४ )
होते हैं उनका तथा 'अबद्ढ़ी' पद द्वारा संयमासंयम और संयमसे गिरते समय जो संक्खेश
परिणाम होते हैं उनका ग्रद्ण किया गया है ।
'लद्डी य संजमा।संजमस्स' इसके अज्ुसार लब्धि तीन प्रकारकी है--प्रतिपातस्थान,
प्रतिपद्यमानस्थान और अप्रतिपात-अप्रतिपदामानस्थान । जिस स्थानके प्राप्त होनेपर यह
जीव मिध्यात्व या असंयमको प्राप्त करता है उसे प्रतिपातस्थान कहते हैं । जिस स्थानके
प्राप्त होनेपर यह जीव संयमासंयम और संयमको प्राप्त होता है उसे प्रतिपद्यमान स्थान कहते
हैं और स्वस्थानमें अवस्थानके योग्य तथा उपरिम गुणस्थानकी प्राप्तिके योग्य दोष स्थानों को
अप्रतिपात-अप्रतिपदामान स्थान कहते हैं ।
यहाँ इस पूर्वाक्त बिवेचनकों ध्यानमें रखकर सबंप्रथम संयमासंयमब्घिका विचार
करते हैं--
संयमासंयमब्घिकी प्राप्ति दो प्रकारसे होती हे--एक तो उपशमसम्यक्त्वके साथ
होती है और दूसरे वेदकसम्यग्दशनपू्वक होती है । यहाँ जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संग्रमा-
संयमढब्घिको प्राप्त करते है उनका अधिकार है । वे इसे प्राप्त करनेके अन्तमुंहूर्त पहले ही
प्रति समय अनन्तशुणी स्वस्थान विशुद्धिसे विशुद्ध होते हुए आयुकमंको छाड़कर इांप सभी
कर्मोका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कम अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर करते हे । सातावेदनीय
आदि शुभ कर्मोका अलुभागवन्ध और अनुभागसस्क्म चतुम्थानीय करते हैं तथा पॉच
ज्ञानावरणादि अझुभ कर्मोका अजुभागबन्ध और अजुभागसत्क् द्विम्थानीय करते है ।
इतना करनेके अन्तमुहूतं बाद अधःप्रचूत्तकरणकों करते हुए प्रति समय तथग्य अनन्त-
गुणी बिशुद्धिसे बिश्ुद्ध दाते है । इन परिणामोंके काछमें स्थितिफाण्डकघात और अजुभाग-
काण्डकघात ये काय नहीं होते । केवल स्थितिबन्धके पूण हानेपर पत्योपमक्के असंख्यातव
भाग कम स्थितिकों बॉधते हूं तथा झुभ कर्मोको उत्तरोत्तर अनस्तगुण अनुभागकें साथ आर
अशुभकर्मोका अनन्तगुण हीन अनुभागके साथ बाँघते है ।
बिशुद्धिकी अपेक्षा विचार करनेपर पहले समयमें जितनी जघन्य बिशुद्धि प्राप्त होती
हूं उससे दूसरे समयमें अनन्तगुणी जघन्य विशुद्धि ्राप्त होती है । इसप्रकार विज्ुद्धिका यह
क्रम अन्तमुहूत काढ तक जानना चाहिये । पुनः अन्तमुंहूत कालके अन्तिम समयमें जा जघन्य
विद्युद्धि प्राप्त हाती हूं उससे प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती दे । उससे
अन्तमुहूतक अन्तिम समयमें प्राप्त हुई जघन्य विशुद्धिसि अगछे समयमें जघन्य विशुद्धि
अनन्तगुणी प्राप्त होती है । उससे दूसरे समयमें उत्कृष्ट ४बशुद्धि अनन्तगुणी श्राप्त होती है ।
इसप्रकार विशुद्धिको इस परिपाटीकों दुशनमोददनीयके उपशामकके अधः्रबृत्तकरणमे प्राप्त हुई
विशुद्धिके समान जानना चाहिए |
इस विधिसे अधप्रयूत्तकरणके सम्पन्न द्ोनेपर अपूवकरणकी प्राप्ति दाती हे । इसमें
स्थिविकाण्डकघात और अनुुभागकाण्डकघात ये दोनों काय प्रारम्भ दो जाते हैं । यहाँ जघन्य
स्थितिकाण्डक पत्यापमके संख्यातब भागप्रमाण होता हे और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक साग-
रोपमध्रथक्त्वप्रम।ण होता हें । शुभ कर्मोका अनुभागघात तो नहीं होता । मात्र अशुभकर्मकिा
प्रत्येक अनुभागकाण्डक अनुभागसत्कमंके अनन्तबहुभागप्रमाण होता है। तथा स्थितिबन्ध
पत्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण दीन होता है ।
यहाँ भी अपूव करणके काढके भीतर हजारों स्थितिकाण्डकघात और उतने ही स्थिति-
बन्घापसरण हते है। तथा एक स्थितिकाण्डकघातके काछके भीतर दजारों अनुभागकाण्डक-
घाव होते हैं ।
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