श्रावक - धर्म | Shrawak Dharm

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Shrawak Dharm by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहिसा न्त [. १ #* समभ लेना चाहिये, कि झभी झ्रापके जीवन में भ्रहिसा पुण रूप से प्रकट नहीं हुई है। ज्ञान होने पर श्रगर श्राप दूसरों का श्रज्ञान दूर नहीं करते हैं, तो समभक लेना चाहिये कि अभी हम ्रह्िसा का विधेयात्मक रूप समझे ही नहीं । बिजली के भी दो तार होते हैं--नेगेटिव श्रौर पोजेटिव । ये दोनों जब शामिल होते हैं, तभी बिजली प्रकाद देती है । इसी प्रकार जीवन में भी जब अहिंसा के दोनों प्रकाशकों का निषेधात्मक श्रौर विधेयात्मक रूपों का संगम होता है, तभी वह अ्रहिसा सजीव होकर तेजस्वी बन सकती है । मेत्री, श्रहिसा का विधेयात्मक स्वरूप है। मंत्री सुखप्रद है और द्वेष दुःखप्रद । मनुष्यों के परस्पर व्यवहार में मेंत्री का अभाव होता है, तो दुनिया में दुख बढ़ जाता है। चोर को श्रपना घर छोड़ कर दूसरा घर प्रिय नहीं होता । इसीसे वह झ्पने लाभ के खातिर दूसरे के घर से चोरी करने के लिये प्रेरित होता है । एक खुनी अपने दारीर को ही चाहता है, दूसरे के दारीर को नहीं | इसीसे वह दूसरे का खुन करने के लिये तत्पर हो जाता है । एक श्रीमन्त श्रपने कुट्टम्ब को ही चाहता है, दूसरों के कुटुम्ब को नहीं । इसीसे वह श्रपने कुटटम्ब की भलाई के लिये दूसरों के कुटुम्वों का दयोषण करता है। राजा अपने देश के सिवाय श्रन्य देशों को नहीं चाहता है.। इसीलिये वह दूसरे देशों पर चढ़ाई करता है । श्रपने घर की तरह ही दूसरों का घर भी समभझ्त लिया जाय, तो फिर कोई किसी के यहाँ चोरी कर सकता है ? सभी श्रपने शरीर की तरह ही दूसरों का शरीर भी कीसती समभे लग जाय, तो फिर कोई किसी का खून कर सकता है? सभी अपने कुटम्ब की तरह ही भ्रन्य कुदुम्बों को भी चाहने लग जाय,




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